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कारिका १०३-१०४] देवागम
१०५ में वाक्यके प्रति न्याय-विदोंकी बाधा-भिन्न-मतिकी सूचना करते हुए दस प्रकारके वाक्योंका उल्लेख है, जिनके नाम है(१) आख्यातशब्द, (२) संधात, (३) जातिसंधातवर्तिनी, (४) एकोनवयवशब्द, (५) क्रम, (६) बुद्धि, (७) अनुसंहति, (८) आद्यपद, (C) अन्त्यपद, (१०) सापेक्षपद।
इन वाक्यप्रकारोंमें वाक्यके ( अकलंकदेवकृत ) उक्त लक्षणकी दृष्टिसे कौन वाक्य-भेद सदोष और कौन निर्दोष कहा जा सकता है इसका अष्टसहस्रीमें श्रीविद्यानन्दाचार्यने सहेतुक विस्तृत विचार किया है।
स्याद्वादका स्वरूप स्याद्वादः सर्वथैकान्त-त्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तभंग-नयापेक्षो हेयाऽऽदेय-विशेषकः ॥१०४॥
'स्यात्-शब्द सर्वथा एकान्तका त्यागी होनेसे "किं' शब्दनिष्पन्न चित्-प्रकारके रूपमें कथंचित् कथंचन आदिका वाचक है और इसलिये कथंचित् आदि शब्द स्याद्वादके पर्याय-नाम हैं। यह स्थाद्वाद सप्तभंगों और नयोंकी अपेक्षाको लिये रहता तथा हेय-उपादेयका विशेषक ( भेदक ) होता है-स्याद्वादके बिना हेय और उपादेयकी विशेषरूपसे व्यवस्था नहीं बनती।' __व्याख्या-जिन सप्तभंगोंका यहाँ उल्लेख है उन अस्तिनास्ति-अवक्तव्यादि-रूप भंगोंका निर्देश ग्रन्थमें इससे पहले आ चुका है। रही नयोंकी बोत, नयोंके मूलोत्तर-भेदादिके रूपमें बहुत विकल्प हैं । जैसे द्रव्य-पर्यायकी दृष्टिसे द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक ये दो मूलनय हैं; अध्यात्मदृष्टिसे निश्चय और व्यवहार ये दो भी मूलनय हैं । शुद्धि-अशुद्धिकी दृष्टिसे भी नयोंके दो-दो भेद किये जाते हैं; जैसे शुद्धद्रव्यार्थिक, अशुद्ध द्रव्यार्थिक, शुद्धपर्यायार्थिक,