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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १०
'युगपत्सर्वभासनरूप जो आद्य प्रमाण केवलज्ञान है उसका ( व्यवहित ) फल उपेक्षा है । शेष क्रमशः भासनरूप जो प्रभाग मत्यादि ज्ञान - समूह है उसका ( व्यवहित - परंपरा ) फल ग्रहण और त्यागकी बुद्धि है तथा पूर्व में कही हुई उपेक्षा भी उसका ( व्यवहित ) फल है और अपने विषयमें अज्ञानका नाश होना इस सारे ही प्रमाणरूप ज्ञानसमूहका ( अव्यवहित अथवा साक्षात् ) फल है ।'
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स्यात् निपातकी अर्थ-व्यवस्था वाक्क्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थ - योगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ १०३ ॥
( ' हे अर्हन् ! ) आपके तथा श्रुतकेवलियों के भी वाक्यों में प्रयुक्त होनेवाला 'स्यात् ' निपात ( अव्यय ) शब्द अर्थके साथ सम्बद्ध होनेसे अनेकान्तका द्योतक' और गम्य-बोध्य ( विवक्षित ) का बोधक-सूचक ( वाचक ) माना गया है — अन्यथा अनेकान्त प्रतिपत्ति नहीं बनती ।'
व्याख्या - सत्-असत् - नित्य- अनित्यादि सकल सर्वथैकान्तोंके प्रतिक्षेप लक्षणको 'अनेकान्त' कहते हैं । और परस्पर सापेक्ष पदोंके निरपेक्ष र समुदायका नाम 'वाक्य' है । वाक्यके इस लक्षणसे भिन्न जो परवादियोंके द्वारा प्रकल्पित अन्यथा वाक्य हैं वे निर्दोष न होकर बाधासहित हैं । वाक्यपदी (२, १-२ )
१. ' द्योतकाश्च भवन्ति निपाताः' इति वचनात् ( अष्टसहस्री ) अर्थात् - निपात शब्द केवल वाचक ही नहीं किन्तु ( प्रकृत अर्थसे भिन्न अर्थके ) द्योतक भी होते हैं ।
२. बाक्यान्तर्गतपदनिरपेक्ष: ( अष्टसहस्री, पृष्ठ २८५ टिप्पण )