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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद १० जिस प्रकार प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागकी विशेषता एवं नाना-रूपताके कारण विचित्रताको लिये हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीयादि अनेक प्रकारका होता है उसी प्रकार उदयकालमें उसका कार्य भी अज्ञान, अदर्शन, मोह, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, सुख, दुःख और शारीरिक रचनादिकी विचित्रताको लिये हुए नाना-रूप होता है। और इससे यह फलित होता है कि जो एक स्वभावरूप नित्य ईश्वर माना जाता है वह तथा उसकी इच्छा या ज्ञान इस नाना-स्वभावरूप जगतका कोई कर्ता नहीं हो सकता और न निमित्तकारण ही बन सकता है। इस विषयकी विशेष चर्चाको अष्टसहस्रीमें बहुत ऊहापोहके साथ स्थान दिया गया है ।
और वह कर्मबन्धन अपने कारणोंके-रागादिक भावोंकेअनुरूप होता है। जिन्हें कर्मबन्ध होता है वे जीव शुद्धि और अशुद्धिके भेदसे दो प्रकारके हैं-भव्य और अभव्य । सम्यग्दर्शनादि शुद्धस्वभावरूप परिणत होनेकी योग्यताकी व्यक्ति रखनेवाले जीव 'भव्य' कहलाते हैं और जिनमें वह योग्यताको व्यक्ति न होकर सदा मिथ्यादर्शनादिरूप अशुद्धपरिणति बनी रहती है वे 'अभव्य' कहे जाते हैं। जो शुद्धि-शक्तिसे युक्त हैं उन्हींकी काल पाकर मुक्ति हो सकती है, शेषकी नहीं।'
शुद्धि-अशुद्धि दो शक्तियोंकी सादि-अनादि व्यक्ति शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्याऽपाक्य-शक्तिवत् । साधनादी तयोव्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः ॥१०॥
'और वे शुद्धि-अशुद्धि दोनों ( मूंग उड़द आदिके ) पचने अपचनेको योग्यताके समान-भव्य-अभव्य-स्वभावके रूपमेंदो शक्तियाँ हैं, जिनको व्यक्ति-प्रादुर्भूति क्रमशः सादि-अनादि