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देवागम
लिख देनेकी जो कृपा की है वह विशेष आभारके योग्य है । यद्यपि प्रस्तावना के लिखने में उन्हें अपनी कुछ परिस्थितियोंके वश आशातीत विलम्ब हुआ है, जिसे उन्होंने अपने प्रकाशकीय में स्वीकार किया है फिर भी मैं तो यही समझता हूँ कि पुस्तकके प्रकाशनका योग इससे पहले नहीं था और इसीसे विलम्ब हुआ है । अस्तु ।
आशा है पाठकगण अब इस अनुवादादिकों पाकर प्रसन्न होंगे और प्रतीक्षाजन्य कष्टको मूल जायेंगे तथा अपनी चित् कालीत इच्छाको * पूरा करनेमें समर्थ हो सकेंगे ।
एटा, ७ मई १९६७
लोकहिताकांक्षी जुगलकिशोर मुख्तार