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कारिका ९२,९३] देबागम होगा। इसी तरह एक मनुष्य कषायभावके वशवर्ती होकर दुःख पहुँचानेके अभिप्रायसे किसी कुबड़ेको लात मारता है, लातके लगते ही अचानक उसका कुबड़ापन मिट जाता है और वह सुखका अनुभव करने लगता है, कहावत भी है—'कुबड़े गुण लात लग गई"-तो कुबड़ेके इस सुखानुभवसे लात मारनेवालेको पुण्यफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती-उसे तो अपनी सुखविरोधिनी भावनाके कारण पाप ही लगेगा। अतः यह एकान्त सिद्धान्त कि 'परमें सुख-दुःखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है' पूर्णतया सदोष है, और इसलिये उसे किसी तरह भी वस्तुतत्त्व नहीं कह सकते।
स्वमै दुःख-सुखसे पुण्य-पापके एकान्तकी सदोषता पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युंज्यानिमित्ततः ॥१३॥ 'यदि अपनेमें दुःखोत्पादनसे पुण्यका और सुखोत्पादनसे पापका बन्ध ध्रुव है—निश्चितरूपसे होता है-ऐसा एकान्त माना जाय, तो फिर वीतराग ( कषायरहित ) और विद्वान् मुनिजन भी पुण्य-पापसे बँधने चाहिये; क्योंकि ये भी अपने सुखदुःखकी उत्पत्तिके निमित्तकारण होते हैं।' ___ व्याख्या-वीतराग और विद्वान् मुनिके त्रिकाल-योगादिके अनुष्ठान-द्वारा कायक्लेशादिरूप दुःखकी और तत्त्वज्ञानजन्य सन्तोषलक्षणरूप सुखकी उत्पत्ति होती है। जब अपनेमें दुःखसुखके उत्पादनसे ही पुण्य-पाप बँधता है तो फिर ये अकषायजीव पुण्य-पापके बन्धनसे कैसे मुक्त रह सकते हैं ? यदि इनके भी पुण्य-पापका ध्रुव बन्ध होता है तो फिर पुण्य-पापके अभावको