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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ९
गया तब मोक्षके लिए कोई कारण नहीं रहता । कारणके अभाव में कार्यका अभाव हो जानेसे मोक्षका अभाव ठहरता है । और मोक्षके अभाव में बन्धकी भी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती; क्योंकि बन्ध और मोक्ष जैसे सप्रतिपक्ष धर्म परस्परमें अविनाभावसम्बन्धको लिये होते हैं- एकके बिना दूसरेका अस्तित्व बन नहीं सकता, यह बात इससे पूर्व कारिकाकी व्याख्या में भली प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है । जब बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य-पापके बन्धकी कथा ही प्रलापमात्र हो जाती है । अत: चेतन - प्राणियों की दृष्टिसे भी पुण्य-पापकी उक्त एकान्त व्यवस्था सदोष है ।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि उन अकषाय-जीवोंके दूसरोंको सुख-दुःख पहुँचाने का कोई संकल्प या अभिप्राय नहीं होता, उस प्रकारकी कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषयमें उनकी कोई आसक्ति ही होती है, इसलिये दूसरोंके सुख-दुःखकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण होनेसे वे बन्धको प्राप्त नहीं होते; तो फिर 'दूसरोंमें दु:खोत्पादन पापका और सुखोत्पादन पुण्यका हेतु है' यह एकान्त सिद्धान्त कैसे बन सकता है ? – अभिप्रायाभावके कारण अन्यत्र भी दुःखोत्पादनसे पापका और सुखोत्पादनसे पुण्यका बन्ध नहीं हो सकेगा ; प्रत्युत इसके विरोधी अभिप्रायके कारण दुःखोत्पत्तिसे पुण्यका और सुखोत्पत्तिसे पापका बन्ध भी हो सकेगा । जैसे एक डाक्टर सुख पहुँचाने के अभिप्रायसे पूर्ण सावधानी के साथ फोड़ेका ऑपरेशन करता है परन्तु फोड़ेको चीरते समय रोगीको कुछ अनिवार्य दुःख भी पहुँचाता है, इस दुःखके पहुँचनेसे डाक्टरको पापका बन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी दु:खविरोधिनी भावनाके कारण यह दुःख भी पुण्य-बन्धका कारण