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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद ९ पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाऽकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥१२॥ 'यदि परमें दुःखोत्पादनसे निश्चित (एकान्ततः ) पापबन्धका होना और सुखोत्पादनसे ( एकान्ततः ) पुण्यबन्धका होना माना जाय तो अचेतन पदार्थ—कण्टकादिक तथा दुग्धादिकऔर अकषाय-परिणत जीव-वीतराग-अवस्थामें स्थित मुनि आदि—भी दुःख-सुखका निमित्त होनेसे बन्धको प्राप्त होंगेउन्हें तब अबन्धक कैसे माना जा सकता है ? ( इस पर यदि यह कहा जाय कि उनके दूसरोंको दुःख वा सुख देनेका कोई अभिसंधान या संकल्प नहीं होता इसलिये वे बन्धको प्राप्त नहीं होते तो फिर परमें दुःख-सुखका उत्पादन निश्चितरूपसे पापपुण्यके बन्धका हेतु है ऐसा एकान्त नहीं बन सकता । ) ___व्याख्या-जब परमें सुख-दुःखका उत्पादन ही पुण्य-पापका एक मात्र कारण है तो फिर दूध-मलाई तथा विष-कण्टकादिक अचेतन पदार्थ, जो दूसरोंके सुख-दुःखके कारण बनते हैं, पुण्यपापके बन्धकर्ता क्यों नहीं ? परन्तु इन्हें कोई भी पुण्य-पापके बन्धकर्ता नहीं मानता–काँटा पैरमें चुभकर दूसरेको दुःख उत्पन्न करता है, इतने मात्रसे उसे कोई पापी नहीं कहता और न पापफलदायक कर्मपरमाणु ही उससे आकर चिपटते अथवा बन्धको प्राप्त होते हैं। इसी तरह दूध-मलाई बहुतोंको आनन्द प्रदान करते हैं; परन्तु उनके इस आनन्दसे दूध-मलाई पुण्यात्मा नहीं कहे जाते और न उनमें पुण्य-फलदायक कर्म-परमाणुओंका ऐसा कोई प्रवेश अथवा संयोग ही होता है जिसका फल उन्हें ( दूधमलाईको ) बादको भोगना पड़े। इससे उक्त एकान्त सिद्धान्त स्पष्ट सदोष जान पड़ता है।