________________
कारिका ९१]
देवागम अपेक्षाको साथमें लिये हुए है, एकके अभावमें दूसरेकी व्यवस्था नहीं बनती। वस्तुतः दोनोंके संयोगसे ही कार्यसिद्धि होती है, अन्यथा वह नहीं बनती। अतः दोनोंमेंसे किसीका भी एकान्त ठीक न होकर स्याद्वाद-नीतिको लिये हुए अनेकान्त-दृष्टि ही श्रेयस्कर है—दैव-पौरुष-विषयक सारे विवादको शान्त करनेवाली है। और इसलिये सब कुछ कथंचित् दैवकृत है, अबुद्धिपूर्वकी अपेक्षासे; कथंचित् पौरुषकृत है, बुद्धिपूर्वकी अपेक्षासे; कथंचित् उभयकृत है, क्रमार्पित दैव-पौरुष दोनोंकी अपेक्षासे; कथंचित् दैवकृत और अवक्तव्यरूप है, अबुद्धिपूर्वककी अपेक्षा तथा सहार्पित दैव-पौरुषकी अपेक्षासे; कथंचित् पौरुषकृत और अवक्तव्यरूप है, बुद्धिपूर्वकी अपेक्षा तथा सहार्पित-दैव-पौरुषकी अपेक्षासे; कथंचित् उभय और अवक्तव्यरूप है, क्रमार्पित-दैव-पौरुष और सहार्पितदैव-पौरुषकी अपेक्षासे। इस तरह सप्तभंगी प्रक्रिया यहाँ भी पूर्ववत् जाननी।
इति देवागमाऽऽतमीमांसायामष्टमः परिच्छेदः ।
नवम परिच्छेद
परमें दुःख-सुखसे पाप-पुण्यके एकान्तकी सदोषता (इष्ट-अनिष्टके साधनरूप जो दैव है वह दो प्रकारका हैएक पुण्य और दूसरा पाप । यह दोनों प्रकारका दैव कैसे उत्पन्न होता है, इस विषयके विवादका प्रदर्शन और निराकरण करते हुए आचार्यमहोदय लिखते हैं :-).