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परिमोट
समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ४ होनेसे उसके द्वारा सत्यसिद्धान्तादिका प्रतिपादन कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता। अतः संवृतिरूप-वचनके द्वारा प्रतिपादन करनेपर भी अवाच्यताका एकान्त स्थिर नहीं रह सकता।)
एकता और अनैकताकी निर्दोष व्यवस्था द्रव्य-पर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणाम-विशेषाच शक्तिमच्छक्ति-भावतः ॥७१॥ संज्ञा-संख्या-विशेषाच स्वलक्षण-विशेषतः । प्रयोजनादिभेदाच तन्नानात्वं न सर्वथा ॥७२॥
'द्रव्य और पर्यायव दोनों ( कथंचित् ) एक हैं; क्योंकि इनके (प्रतिभासका भेद होनेपर भी) अव्यतिरेकपना है—अशक्यविवेचन होनेसे सर्वथा भिन्नताका अभाव है । तथा द्रव्य और पर्याय ( कथंचित् ) नानारूप हैं—एक दूसरेसे भिन्न हैं; क्योंकि दोनोंमें परिणाभका लेद है, शक्तिमान-शक्तिभावका सेद है, संज्ञा (नाम)का भेद है, संस्थाका भेद है, स्वलक्षणका भेद है और प्रयोजनका तथा आदि शहरो काल एवं प्रतिभासका भेद है। इससे द्रव्य और पर्याय दोनों सर्वथा एकरूप नहीं और न सर्वथा नानारूप ही है-दोनोंमें कथंचित् भेदाऽभेदरूप अनेकान्तत्व प्रतिष्ठित हैं।' ___व्याख्या—यहाँ 'द्रव्य' शब्दसे गुणी, सामान्य तथा उपादानकारणका और 'पर्याय' शब्दसे गुण, व्यक्ति-विशेष तथा कार्यद्रव्यका ग्रहण है। 'अव्यतिरेक' शब्द अशक्य-विवेचनका वाचक है, जिसका अभिप्राय यह है कि एक द्रव्यको अन्य द्रव्यरूप तथा एक द्रव्यकी पर्यायको अन्य-द्रव्यकी पर्यायरूप नहीं किया जा सकता अथवा विवक्षित द्रव्यको उसकी पर्यायसे और विवक्षित पर्यायको उसके द्रव्यसे सर्वथा अलग नहीं किया जा सकता।