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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद ३ वस्तुको सर्वथा क्षणिक तथा सर्वथा नित्य माननेपर ज्ञानका संचार नहीं बन सकेगा, यह दोष आएगा। ज्ञानका संचार अनेकान्तकी मान्यतामें ही प्रतीतिगोचर होता है।'
उत्पाद-व्यय सामान्यका नहीं, विशेषका होता है न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥५७॥
(हे भगवन् ! ) आपके मतमें सामान्य स्वरूपसे—सर्व अवस्थाओं अथवा पूर्वोत्तर-पर्यायोंमें साधारण स्वभावरूपसे रहनेवाले द्रव्यकी दृष्टिसे—न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न विनाशको प्राप्त होती है, क्योंकि प्रकट अन्वयरूप है-वस्तुका सामान्य स्वरूप जो द्रव्यस्वभाव है वह उसकी सब अवस्थाओंमें सदा स्थिर रहता है।'
. ( यदि यह कहा जाय कि काटे हुए नख-केश फिरसे उपजते हैं, उनमें अन्वयके दर्शन-द्वारा व्यभिचार-दोष आता है; क्योंकि उनमें उत्पत्ति और विनाश दोनों दिखाई पड़ते हैं जब कि अन्वयके कारण वे दोनों न होने चाहिये थे, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; कारण कि अन्वयके साथ 'व्यक्त' विशेषण लगा हुआ है, जो इस बातका सूचक है कि एकत्वान्वय प्रमाणसे बाधित नहीं होना चाहिये। यहाँ ये नखादिक वे ही हैं ऐसा एकत्वान्वय प्रकट-प्रमाणसे बाधित हैं; क्योंकि उत्पन्न नखादिक वे ही न होकर उनके सदृश है जो कट चुके हैं। )
'विशेषरूपसे—पर्याय अथवा व्यतिरेककी दृष्टिसे—वस्तु विनशती तथा उपजती है। एक वस्तुमें युगपत् उत्पाद, व्यय