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कारिका ५६ ]
देवागम विरोध उपस्थित होता है-उसी प्रकार जिस प्रकार कि उस पुरुषके उपस्थित होता है जो यह कहे कि 'मैं सदा मौनव्रती हूँ'; क्योंकि उसका वैसा कहना उसके सदा मौन-व्रतका विरोधी है।'
नित्य-क्षणिक-एकान्तोंकी निर्दोष व्यवस्थाविधि नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानानाकस्मात्तदविच्छिदा। क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्धयसंचरदोषतः ॥५६॥
'( हे स्याद्वादन्याय-नायक अर्हन् भगवन् ) आपके मतमें ( सम्पूर्ण जीवादि ) वस्तुतत्व कथंचित् नित्य है; क्योंकि उसका प्रत्यभिज्ञान होता है-यह वही है जो पहले देखा था, ऐसा पूर्वोत्तर-दशामें जो एकत्वका बोध होता है वह उसके नित्यत्वको सिद्ध करता है। और यह प्रत्यभिज्ञान अकस्मात्-बिना किसी कारणके निविषय तथा भ्रान्तरूप-नहीं होता; क्योंकि अविच्छेद रूपसे बिना किसी बाधाके अनुभवमें आता है। ( यदि प्रत्यक्षको बाधक माना जाय तो वह ठीक नहीं है; क्योंकि प्रत्यक्षका विषय वर्तमान पर्यायात्मक वस्तु होनेसे पूर्वाऽपरपर्यायव्यापी एकत्वलक्षण प्रत्यभिज्ञानके विषयमें उसकी प्रवृत्ति नहीं बनती। जो अपना विषय नहीं, उसमें कोई बाधक या साधक नहीं होता जैसे श्रोत्रइन्द्रियके ज्ञान-विषयमें चक्षुइन्द्रियका ज्ञान ।)
और आपके मतमें वस्तुतत्त्व कथंचित् क्षणिक है-अनित्य है; क्योंकि उसमें कालके भेदसे परिणाम-भेद पाया जाता हैक्षण-क्षणमें वस्तुकी पर्यायें पलटती रहती हैं, जो कथंचित् एकदूसरेसे भिन्न होती हैं। पर्यायोंके इस पलटन ( परिवर्तन ) एवं परिणमनसे वस्तुमें प्रतिक्षण उत्पाद-व्ययके होते रहनेपर भी वस्तुका अपने ध्रौव्य गुणके कारण कभी नाश नहीं होता। इसी पर्यायदृष्टिसे वस्तु कथंचित् क्षणिक है-सर्वथा क्षणिक नहीं।