________________
दुष्वसंगह
उत्थानिका: इदानीं चारित्रमाह -
गाथा : असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तिय जाण चारितं । 'वदसादिगुतिरूवं ववहारणवाद जिण भणियं ॥ 45 ॥ टीका : जाण चारितं जानीहि चारित्रम् । किं तत् ? असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय अशुभात्पापास्रवरूपात् निवृत्ति: शुभपुण्यास्त्रवद्वाररूपेण प्रवृत्तिश्च । एतत् वदसमिदिगुत्तिरूवं व्रतसमितिगुप्तिरूपम्, कस्मात् ? ववहारणया दु व्यवहारनयापेक्षया तु, किं विशिष्टम् ? जिणभणियं वीतराग- प्रतिपादितम् भावचारित्रं पुनरहं ब्रवीमि परिणामः ।
उत्थानिका : अब चारित्र को कहते हैं
-
गाथार्थ : [ असुहादो ] अशुभ से [ विणिवित्ती ] निवृत्ति [य] और [ सुहे ] शुभ में [ प्रवित्ति ] प्रवृत्ति [ जिणभणियं ] जिनेन्द्रकथित [ चारितं ] चारित्र है (ऐसा ) [ ववहारणया ] व्यवहार नय से [ जाण ] जानो [दु] और [ वह ] [ वदसमिदिगुत्तिरूवं ] व्रत, समिति, गुतिरूप है 145 ॥ टीकार्थ: जाण चारितं चारित्र जानो। वह चारित्र क्या है ? असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ति य अशुभ से, पापास्रव रूप से निवृत्ति और शुभ पुण्यास्रव के द्वार के रूप से प्रवृत्ति। यह वदसमिदिगुत्तिरूवं व्रत, समिति, गुतिरूप है। किस अपेक्षा से? ववहारणया दु व्यवहार नय की अपेक्षा से, उस की क्या विशेषता है? जिणभणियं वीतरागी ने प्रतिपादित किया है। पुनः भावचारित्र [परिणाम] को मैं कहूँगा ।
भावार्थ : जो क्रिया पाप से बचाती है एवं शुभ में रमाती हैं, वह चारित्र है, ऐसा व्यवहार नय से जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
पंच पापों से विरति व्रत हैं - वे पाँच हैं।
83