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दख्खमंग
उत्थानिका : अब दर्शनपूर्वक ज्ञान की कहते हैं
गाथार्थ : [ छद्मत्थाणं ] छद्मस्थों को [ दंसणपुव्वं ] दर्शन पूर्वक [ णाणं ] ज्ञान होता है। [ जम्हा ] क्योंकि [ दोणि ] दोनों [ उवओगा ] उपयोग [ जुगवं ] एक साथ [ ण ] नहीं होते [तु] परन्तु [ केवलिणाहे ] केवलिनाथ को [ते] वे [ दो वि ] दोनों भी [ जुगवं ] एक साथ होते
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टीकार्थ: दंसणपुव्वं णाणं दर्शनपूर्वक, विषय और विषयों का सन्निपात दर्शन है, उस के बाद अर्थ ग्रहण करना ज्ञान है। जैसे बीज और अंकुर । किन को? छद्मत्थाणं छद्मस्थों को दर्शनावरणीय एवं ज्ञानावरणीय कर्म से युक्त जीवों को, उन कोण दोण्णि उवओगा जुगवं जम्हा दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों युगपत् नहीं होते, अतः बीजपूर्वक अंकुर के समान दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। केवलिणाहे तु पुनः केवलज्ञान से युक्त जीवों को जुगवं तु ते दो वि सूर्य के प्रकाश एवं प्रताप के समान दोनों युगपत् होते हैं।
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भावार्थ : छद्म यानि आवरण । ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दोनों छद्म हैं। इन में स्थ यानि निवास करने वाले अल्पज्ञानी जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। जैसे बीज से अंकुर उत्पन्न होता है, उसी प्रकार छद्मस्थ जीवों को दर्शनपूर्वक ज्ञानोपयोग होता है।
विषय और विषयी दोनों के प्रथम मिलन को दर्शनोपयोग कहते हैं । दर्शन के पश्चात् वस्तुस्वरूप के बोध को ज्ञानोपयोग कहते हैं। छमस्थों को दोनों उपयोग एक साथ नहीं है।
सूर्य का प्रकाश एवं प्रताप एक साथ उत्पन्न होता है, उसी प्रकार केवलज्ञानी को दोनों ही उपयोग एक साथ होते हैं। 44 ॥
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