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सान- नगर दिव्यसंगह
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वचन-काय से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है। ठिदि अणुभागा कसायदो हुंति स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय से होता है। वहाँ ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। मिथ्यात्व-असंयम-कषाय और योग के कारण कर्मत्व को प्राप्त ज्ञानावरणादि कर्म प्रदेशों का जितने काल पर्यन्त अन्य स्वरूप से परिणति होती है, उस काल की स्थिति संज्ञा है। ज्ञानावरण दर्शनावरण-वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 30 कोडाकोड़ी सागर है, मोहनीय को 70 कोडाकोड़ी सागर, नाम और गोत्र की 20 कोड़ाकोड़ी सागर है। आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागर है।
वेदनीय की जघन्य स्थिति 12 मुहूर्त है, नाम और गोत्र की 8 मुहूर्त है। । शेष सभी कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। ये इन का स्थितिबन्ध है।
कर्मों की रस शक्ति अथवा अनुभाग का विभाजन अनुभाग बन्ध है।
प्रदेश से कर्मों का अनुबन्ध अर्थात् जीव के प्रदेश में कर्मों के प्रदेश अनन्तानन्त रहते हैं। उन का बन्ध प्रदेशबन्ध है। भावार्थ : प्रकृति-स्थिति-अनुभाग व प्रदेश के भेद से बन्ध के चार भेद
प्रकृतिबन्ध : कर्मों में उन के स्वभाव की प्राप्ति होना, प्रकृतिबन्ध है। स्थितिबन्ध : आत्मा के साथ कर्मों के रहने की मर्यादा स्थिति है - उस का बन्ध स्थिति बन्ध कहलाता है। अनुभागबन्ध : कर्मों की फलदान शक्ति को अनुभाग कहते हैं। कर्मों में अनुभाग नियत होना अनुभाग बन्ध है। प्रदेशबन्ध : बद्ध कर्मों के प्रदेशों की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं।
प्रकृति और प्रदेशबन्ध का कारण योग है तथा स्थिति व अनुभागबन्ध का कारण कषाय है।। 33॥
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