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दव्यसंगह
पुद्गलसम्बन्धादशुभपरिणामाः तस्मात् पापम्, पापादास्रवस्तस्मात्कर्मबन्धः। कर्मबन्धनिराकरणाय संवर-निर्जरा, संवरनिर्जराभ्यां पुण्यम्, पुण्यात् शुभपरिणतिः, शुभपरिणते: कर्मक्षयः, कर्मक्षयान्मोक्षः इति। तत्र शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप आस्रवः। आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशात् प्रदेशात्मको बन्धः। आस्रवनिरोधो संवरः, एकदशकर्मक्षयलक्षणा निर्जरा, सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः। अव्रतपरित्यागलक्षणं पुण्यम् । मिथ्यात्वप्रवर्तनलक्षणं पापम्। उत्थानिका : अब जीवों के और पुद्गल के सम्बन्ध से जो परिणाम विशेष उत्पन्न होते हैं, उन पदार्थों को कहते हैं - गाथार्थ : [जे ] जो [ आसव ] आस्रव [बंधण] बंध [ संवर ] संवर [णिजर ] निर्जरा [ मोक्खो ] मोक्ष [सपुण्णपावा ] पुण्य और पाप सहित [जीवाजीवविसेसा ] जीव और अजीव के भेद हैं [ ते ] उन्हें [वि] भी [समासेण ] संक्षेप से [पभणामि ] मैं कहता हूँ।। 29 ॥ टीकार्थ : ते वि समासेण पभणामि उन को भी मैं संक्षेप से कहता हूँ। वै कौन हैं? जे जो आसवबंधणसंवरणिजरमोक्खो सपुण्णपावा जे आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप। ये कैसे हैं? ये जीवाजीवविसेसा जीव और पुद्गल की पर्यायें हैं। चुंकि जीव के पुद्गल सम्बन्ध से अशुभ परिणाम होते हैं, उस से पाप होता है, पाप से आस्रव और आस्रव से कर्म बन्ध होता है। कर्मबन्ध के निराकरण के लिए संवर-निर्जरा होती है, संवर-निर्जरा से पुण्य, पुण्य से शुभ परिणति, शुभपरिणत्ति से कर्मक्षय और कर्मों के क्षय से मोक्ष होता है।
उस में शुभ और अशुभ कर्म के आगमन का जो द्वार है, वह आस्रव है। आत्मा व कर्मों का अन्योन्य प्रवेश हो कर एक प्रदेशावगाही हो जाना, बन्ध
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