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दव्यसंगह
ज्ञातव्याः। असाधारण: द्रव्याणां परिणमयितृत्वम्। आकाशद्रव्यस्य साधारगाणा:-अस्तित्वं वस्तुन. दत्गत्वा मूर्तन्वं प्रदेशत्वमचेतनत्वं चेति। असाधारणाः सकलपदार्थानामवकाशदायक इति प्रतिपादिते सत्ति उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं वस्तुप्रतिपादितं कथितम्। उत्थानिका : अब इष्ट देवता विशेष को नमस्कार कर के महामुनि सिद्धान्तिक श्री नेमिचन्द्र प्रतिपादित पद्रव्यों के स्वल्प प्रबोधनार्थ संक्षेप पद्धति से विवरण करते हैं -
गाथार्थ : [जेण ] जिन [जिणवरवसहेण ] जिनवर वृषभ ने [जीवमजीव ] जीव और अजीव [ दब्वं ] द्रव्य [णिद्दिढं] कहे हैं। [ देविंदविंदवंदं ] देवेन्द्रों के समूह से बन्दनीय [तं] उन को [ सव्वदा] हमेशा [ सिरसा ] सिर नवाँ कर [ वंदे] नमस्कार करता हूँ।। 1॥ टीकार्थ : अर्हन्त जिनवर को वंदे मैं नमस्कार करता हूँ। वे कैसे हैं? देविंदविंदबंदं देवों के इन्द्र अर्थात् देवेन्द्र, उन का वृन्द यानि समूह, उन से वन्द्य अर्थात् पूज्य हैं। वन्दना कब करता हूँ? सव्वदा सभी काल में, जब तक सराग परिणति है, तब तक वन्दना करता हूँ। वीतराग अवस्था में मैं नमस्कार नहीं करूंगा, क्योंकि उस पद की प्राप्ति होने पर कोई किसी के द्वारा वन्दनीय नहीं होता। अथवा अतीत-अनागत और वर्तमान काल में मैं वन्दना करता हूँ। किस के द्वारा वन्दना करता हूँ? सिरसा मस्तक से, उन को, किन को नमस्कार करता हूँ? जेण जिणवरवसहेण णिहिढं जिन जिनवर वृषभ के द्वारा निर्दिष्ट है, प्रतिपादित है। जिनवर यानि गणधर देवादि, उन में वृषभ यानि प्रधान, जिनवर हैं वृषभनाथ जो, उन जिनवर वृषभनाथ के द्वारा । क्या निर्दिष्ट किया गया है? जीवमजीवं दवं जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य। जीव द्रव्य की व्युत्पत्ति क्या है? व्यवहार नय से दश प्राणों के साथ जो
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