________________
हदव्वसंगह उत्थानिका : ग्रंथकार औद्धत्यपरिहारं कुर्वनाह - गाथा : दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा।
सोधयंतु तणुसुत्तरैण णेमिचंदमुणिणा भणियं जं॥8॥ टीका : सोधयंतु शुद्धं कुर्वन्तु, के ते? मुणिणाहा मुनिनाथाः, किं तत्? दव्वसंगहमिणं द्रव्यसंग्रहमिमं, किं विशिष्टः? दोससंचयचुदा . पदेशिदोषसंघरगुतः अनमोचा। उत्थानिका : ग्रंथकार आत्मगर्व का परिहार करते हुए कहते हैं कि - गाथार्थ : [ तणुसुत्तधरेण ]अल्प श्रुतज्ञान के धारी [णेमिचंदमुणिणा] नेमिचन्द्र मुनि के द्वारा [ जं] जो [इणं] यह [दव्यसंगहं ] द्रव्यसंग्रह [भणियं ] कहा है, उसे [ सुदपुण्णा ] शास्त्रों के ज्ञाता [ दोससंचयचुदा] समस्त दोषों से रहित [ मुणिणाहा ] मुनि राज[ सोधयंतु] शुद्ध करें ।। 58 ।। टीकार्थ : सोधयंतु शुद्ध करें। कौन करें? मुणिणाहा मुनिनाथ, किस का? दव्यसंगहमिणं इस द्रव्यसंग्रह को, कैसा है? वे शोधनकर्ता? दोससंचयचुदा राग द्वेषादि दोष समूह से विरहित, वचन गोचर हैं। सूचना : टीका अपूर्ण है, अत: मैं यह टीका स्वयं लिख रहा हूँ - [सम्पादक] अल्पश्रुतधर-नेमिचन्द्रमुनिना कथितं इदं द्रव्यसंग्रहग्रंथं श्रुतपूर्णाः, दोषसंचयच्युताः, मुनिनाथाः शोधयन्तु। अर्थ : अल्पश्रुतधर नेमिचन्द्र मुनि के द्वारा कथित इस द्रव्यसंग्रह ग्रंथ का श्रुतपूर्ण, दोषसंचय से रहित, मुनिनाथ शोधन करें। भावार्थ : अल्पज्ञानी नेमिचन्द्र मुनिराज ने जो यह द्रव्यसंग्रह नामक ग्रंथ लिखा है, उस का संशोधन श्रुतज्ञान से संपन्न, दोषों से विरहित, मुनिराज करें ।। 58॥