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दव्यसंगह __ क्या करता हुआ? जं किंचि वि चिंतंतो जो कुछ द्रव्य रूप का अथवा वस्तु का चिन्तन कर के, ध्यान कर के लद्धणय एयत्तं प्राप्त कर के, किस को? एकत्व को, अयोगि अवस्था को। भावार्थ : जब साधु निस्पृहवृत्तिवान् हा कर एकाग्रता से ध्यान करने योग्य पदार्थ का चिन्तन करता है, उस समय उस साधु को निश्चय से ध्यान की सिद्धि हो जाती है। 1 55 । पाठभेद: णिच्छया : णिच्छयं
1155॥
उत्थानिका : इदानीं ग्रन्थकारो ध्यानस्वरूपमुक्त्वा शिक्षाद्वारेण ध्यानमाह - गाथा : मा चिट्ठह मा जपह मा चिंतह किंचि जेण होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवड़ झाणं॥56 ।। टीका : मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंचि, अन्यत्किंचिन्मा चेष्टत यूयम्, मा जल्पयत, मा चिंतयत, तर्हि किं कुर्मः? तत्किं चेष्टत? तत्किं जल्पत? तत्किं चिन्तयत? जेण होइ थिरो अप्पा अप्पम्मि रओ येन चेष्टितजल्पितचिन्तनेन कृत्वा भवति स्थिरो ह्यात्मा आत्मनिरतः, उक्तं च
तत् ब्रूयात्परान्पृच्छेदिच्छेत्तत्परोभवेत्।
येनाविद्यामयं रूपं त्यक्ता विद्यामयं व्रजेत्॥ इणमेव परं हवइ झाणं यस्मादेतदेव चेष्टितादिकमेव ध्यानं भवति। उत्थानिका : ग्रंथकार ध्यानस्वरूप का कथन कर के अब शिक्षा के माध्यम से ध्यान का कथन करते हैं - गाथार्थ :[किं चि ] कुछ भी [ मा चिट्ठह ] चेष्टा मत करो [ मा जंपह]
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