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दलसंगह उत्थानिका : शुद्धनिश्चयनयमाश्रित्य कीदृशं ध्यानं इत्याह - गाथा : जं किंचि वि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू।
लखूणय एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छया झाणं॥5॥ टीका : तदाहु तं तस्स णिच्छया झाणं तस्मिन् प्रस्तावे हि स्फुटम्, तत्प्रसिद्धमसहायम्, तस्स तस्य साधोः, णिच्छया झाणं, शुद्धनिश्चयनयेन ध्यानं तदा, जदा साहू हवे यदा साधुर्भवन्, कथंभूतः, णिरीहवित्ती बाह्याभ्यन्तरप्रसाहितः। णिज्जियसायो णिफंदलोयणोमुक्कसयलवावारो इत्यर्थः। किं कुर्वन्, जं किंचि विचिंततो यत्किंचिद्रव्यरूपं वा वस्तुचिंतयन् ध्यायन्, किं कृत्वा, लद्भूणय एयत्तं, लब्ध्वा च किमेकत्वमयोगित्वम्। उत्थानिका : शुद्धनिश्चयनय के आश्रय से ध्यान किस प्रकार होता है, उसे कहते हैं - गाथार्थ : [ जदा ] जब [ साहू ] साधु[ एयत्तं ] एकाग्रता को लभ्रूणय] प्राप्त कर के [ जं] जिस [ किंचि वि] किसी भी ध्यान करने योग्य वस्तु का [चितंतो ] विचार करता हुआ [णिरीहवित्ती] निस्पृह होता है [तदा] तब [ हु] निश्चयतः [तं] वह [ तस्स ] उस का [ णिच्चया] निश्चय [झाणं ] ध्यान [ हवे ] होता है।। 55 ।। टीकार्थ : तदा हु तं णिच्छया झाणं उस प्रस्ताव में, हि - निश्चय से, वह प्रसिद्ध और असहाय तस्स उस साधु के णिच्छया झाणं शुद्धनिश्चयनय से तब ध्यान होता है जदा साहू हवे जब साधु होता है। कैसा होता है? णिरीवित्ती बाह्याभ्यन्तर विस्तार [इच्छा] से रहित।। जिस ने श्वासों को जीत लिया है, जिस के नेत्र स्पंद रहित हो गये हैं, जो सम्पूर्ण व्यापार से रहित हो चुका है। यह अर्थ है।
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