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भव अत्यन्त दुर्लभ है उसे तुने धर्मसाधन बिना ही गँवा दिया और अब भी गँवा रहा है (१२४) अब जो बीत गई सो बीत गई, हे मनुष्य ! अब तो तू अपने दर्शन और चारित्र को संभाल (१२३); जिनकी अपनी सुधि है, ध्यान है, वे नरभव पाकर जैनधर्म का पालन करते हैं और अविनाशी पद प्राप्त करते हैं { १२२)। __ गुरु द्वारा भर्त्सना - बार बार समझाने पर भी जीवः मनुष्य नहीं समझता तब गुरु उसे प्रताड़ित करने में भी नहीं चूकतं । वे कहते हैं - अरे निपट अज्ञानी जीव ! तू कितना भरम में भूला हुआ है, अपना भला किसमें है तू यह भी नहीं जानता, अपना स्वरूप भी नहीं जानता (१२०), (१०५); तूने यह कैसी अनीति धारण कर ली है कि गुरु की सीख भी नहीं मानता (७८); सत्गुरु बार-बार हितकारी सोख देते हैं (१०८): पर तू उसे मन में धारण नहीं करता (११२): मृगतृष्णा की भाँति भ्रम में ही डूबे रहते हो !७९):दे निपर अनजानी ! नमने आया! निजत्व नहीं जाना, नाहक भ्रम में ही भूले हुए हो (१२०): हे नर ! तू भ्रम को नींद क्यों नहीं छोड़ता जो अत्यन्त दु:खदायी है (१०९); तू अपने को भूलकर पर-रूप को अपनाता है (१०९); तू कैप्सा ज्ञानधारी है (१०५); जानबूझ कर अंधे बने हो, आँखों पर पट्टी बाँध रखो है (११०); हे जीव ! बालपन में हित अहित का ध्यान नहीं रहता, युवावस्था में विषय- भोगों में ही लगा रहता है, वृद्धावस्था में अंग शिथिल हो जाते हैं इसलिए विचारकर कि इन तीनों में हित की, सुख की दशा कौनसी है (९१); तू अपने स्वरूप को भूलकर, अपनी समतारूपी निधि को भूलकर स्वयं भिखारी बन गया है (१०८); तू दुःख से डरता है पर क्रियाएँ दु:ख उपजाने को ही करता है (१०८)। ___ आत्म-संबोध - गुरु के द्वारा बार-बार, अनेकविध समझाने पर भव्य जोव विचारने लगता है कि मैं अपने को भूल रहा हूँ इसलिए भ्रमित हो रहा हूँ (१); मैं अपनी स्वाभाविक निधि को भी भूल रहा हूँ (५): और पर के साथ लग रहा हूँ (२३); यह मोह भी बहुत दुष्ट है, इसने मुझे घेर रखा है और संसाररूपी जंगल में भटकाया है (४); मैं कैसा अज्ञानी हूँ कि मैंने गुरु का कहना भी न माना (७८); मृगतृष्णा की भाँति भ्रमित होता रहा (७९); मैंने कभी अपने हित के कार्य नहीं किये, हितकारी - अच्छे कुल को पाया, श्रेष्ठ देव व गुरु का अच्छा साथ मिला पर ये सब पाकर खो दिये (१११); हम विषय-भोगों को भी नहीं
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