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और सबै जगद्वन्द मिटावो, लो लावो जिन आगम- ओरी ॥ टेक ॥ है असार जगद्वन्द बन्धकर, यह कछु गरज न सारत तोरी। कमला चपला, यौवन सुरधेनु, स्वजन पथिकजन क्यों रति जोरी ॥ १ ॥ विषय कषाय दुखद दोनों ये, इनतैं तोर नेहकी डोरी । परद्रव्यनको तू अपनावत, त्यों न तजै ऐसी बुधि बीत जाय सागरथिति सुरकी, नरपरजायतनी अति थोरी । अवसर पाय 'दौल' अब चूको, फिर न मिलै मणि सागरबोरी ॥ ३ ॥
छोटी ॥ २!!
हे भव्यप्राणी ! जगत के सारे द्वंद्व फंद छोड़कर अब जैन धर्म की ओर अपनी रुचि/लगन लगाओ।
जगत के ये सारे क्रिया-कलाप, द्वंद्व फंद सब सारहीन हैं, निरर्थक हैं, कर्मबन्ध करनेवाले हैं, इनसे तेरा कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। लक्ष्मी बिजली के समान चंचल है, यौवन इन्द्रधनुष के समान क्षणिक है। स्वजन तो संसारपथ में मिले पथिक / राहगीर के समान हैं तू क्यों इनसे मोह करता है !
इंद्रिय विषय और कषाएँ दोनों ही दुःख के कारण हैं, इनसे तू अपनापन मतकर, इनसे संबंध तोड़ ले। परद्रव्यों को तू अपना कहता है, ऐसे बावलेपन को, बुद्धपने को, ऐसी बुद्धि को छोड़ दे।
देवों की सागरों - पर्यन्त की आयु भी बीत जाती है, उसकी तुलना में तो इस नर- पर्याय का समय बहुत थोड़ा है। दौलतराम कहते हैं कि नर- पर्याय का यह थोड़ा सा अवसर तुझे मिला हैं उसे मत खो। सागर में फेंकी गई भणि खो जाती है, फिर नहीं मिलती ( वैसे ही एक बार अवसर खो जाने के बाद फिर नहीं
मिलेगा ) ।
कमला लक्ष्मी चपला बिजली सुरधनु इंद्रधनुष ।
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दौलत भजन सौरभ