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जिन छवि लखत यह बुधि भयी टेक॥ मैं न देह चिदंकमय तन, जड़ फरसरसमयी॥जिन.॥ अशुभशुभफल कर्म दुखसुख, पृथकता सब गयी। रामदोषविभावचालित, ज्ञानता थिर थयी॥१॥जिन. ।। परिगह न आकुलता दहन, विनशि शमता लयी। 'दौल' पूरवअलभ आनंद, लह्यौ भवथिति जयी॥ २॥जिन.॥
श्री जिनेन्द्र को छ । के दर्शन करने से मुझे यह ज्ञान हुआ कि मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, मैं देह न हूँ, यह तन जड़ पुद्गल हैं, स्पर्श-रसवाला है।
अशुभकर्मों का फल दुःख व शुभकर्मों का फल सुख है, अब यह सब अन्तर समाप्त हो गया। राग व द्वेष दोनों आत्मा के विभाव से संचालित हैं - अब ज्ञानस्वभाव में स्थिरता हुई है।
परिग्रह जो आकुलता की आग है, उसको नष्ट कर शान्ति हुई। दौलतराम कहते हैं कि पहले जो कभी नहीं मिला, वह संसार को जीतनेवाली आनन्द की स्थिति अब हुई है।
अलभ - अ लभ = न पाया हुआ, अलभ्य, कठिनता से पाने योग्य।
दौलत भजन सौरभ
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