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(७) हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै ॥ टेक ॥ रागद्वेषदावानलतें बचि, समतारसमें भीजै॥१॥हे जिन.॥ परकों त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहूं छीजै॥२॥हे जिन.॥ कर्म कर्मफलमाहि न राचे, ज्ञानसुधारस पीजै॥३॥ हे जिन.॥ मुझ कारज के तुम कारन वर, अरज 'दौल' की लीजै।॥४॥हे जिन.॥
हे जिनेन्द्र देव! मेरी ऐसी बुद्धि हो जिससे मैं राग-द्वेषरूपी अग्नि से बचकर समतारूपी रस में भीज जाऊँ।
स्व से परे जो पर है, अन्य हैं उसको छोड़कर मैं अपनी आत्मा में ही रमण करूँ और वह आदत-लाग मेरी कभी भी न छूटे, मेरी ऐसी बुद्धि हो।
कर्म और उसके फल की ओर मेरी कभी रुचि न हो और मैं सदैव ज्ञानरूपी अमृत का पान करता रहूँ अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप में सदा लीन रहूँ, मेरी ऐसी बुद्धि हो।
निज रूप की, स्वरूप की पहचान के लिए मुझे सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की प्राप्ति हो। इसके लिए आप ही श्रेष्ठ कारण हो; साधन हो अर्थात् आपका गुण चितवन मुझे अपने गुणों की प्रतीति कराता रहे । दौलतराम कहते हैं कि यह ही उनकी विनती हैं, अरज है, उसे स्वीकार कीजिए।
लाग. आदता
दौलत भजन सौरभ