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अब काललब्धिबलते दयाल। तुमदर्शनपाय भयो खुशाल॥ मन शांत भयो मिट सकलद्वन्द। चाख्यो स्वातमरस दुखनिकंद॥१२॥ तातें अब ऐसी करहु नाथ! बिछुरै न कभी तुव चरणसाथ। तुम गुणगणको नहिं छेव देव!, जगतारनको तुम विरद एव॥१३॥ आतमके अहित विषय-कषाय। इनमें मेरी परणति न जाय। मैं रहों आपमें आप लीन। सो करो होहुँ ज्यों निजाधीन ॥१४॥ मेरे न चाह कछु और ईश। रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश। मुझ कारजके कारन सु आप। शिव करहु हरहु मम मोहताप॥१५॥ शशिशांतिकरन तपहरन हेत। स्वयमेव तथा तुम कुशल देत॥ पीवत पियूष ज्यों रोग जाय। त्यों तुम अनुभवतै भव नसाय ।।१६।। त्रिभुवन तिहुंकालमझार कोय। नहिं तुम विन निजसुखदाय होय॥ मो उर यह निश्चय भयो आज। दुखजलधिउतारन तुम जहाज ।।१७।। दोहा - तुम गुणगणमणि गणपती, गणत न पावहिं पार।
'दौल' स्वल्पमति किम कहै, नमों त्रियोग सँभार॥१८॥
जो सब ज्ञेयों के जाननेवाले हैं, फिर भी अपने ही आनन्दरस में निमग्न हैं, लीन हैं, ऐसे आप - जिनेन्द्रदेव की जय हो । आप मोहनीय (अरि), ज्ञानावरणदर्शनावरण (रज) व अंतराय कर्म (रहस) से रहित हैं अर्थात् आपके चातियाकर्म नष्ट हो चुके हैं।
आप वीतराग विज्ञान से भरे-पूरे हैं, आपकी जय हो; आप मोहरूपी अंधकार को नष्ट करनेवाले सूर्य हैं, आपकी जय हो। आप अनन्त-अनन्त ज्ञान के धारी हो, आपकी जय हो। आप अपार अर्थात् अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख व अनन्त बल के धारी हो।
परमशान्ति की धारक आपकी छवि, भव्य प्राणियों को निज की अनुभूति कराने के लिए हेतु है, साधन है। भव्यजनों को सौभाग्यवश मन-वचन-काय
दौलत भजन सौरभ