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( १ )
तदपि
निजानंदरसलीन ।
सकल ज्ञेय ज्ञायक सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरजरहस विहीन ।। १ ।।
जय
वीतराग विज्ञानपूर । जय मोहतिमिरको
हरणसूर ॥
।
जय ज्ञान अनंतानंत धार। दृगसुखवीरजमंडित अपार ॥ २ ॥ जय परमशांतिमुद्रासमेत भविजनको निज अनुभूति हेत ॥ भविभाग नवश जोगे वशाय । तुम धुनि ह्वै सुनि विभ्रम नसाय ॥ ३ ॥ तुम गुणचिंतत निजपरविवेक । प्रगटें विघटें आपद अनेक ॥ तुम जगभूषण दूषणवियुक्त | सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥४॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतन - स्वरूप । परमात्म परमपावन अनूप ॥ शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन । स्वाभाविकपरणतिमय अछीन ॥ ५ ॥ धीर ।
अष्टादशदोषविमुक्त मुनिगणधरादि सेवत महन्त । नव
राजत गंभीर ।।
केवललब्धिरमाधरंत ॥ ६ ॥
सुचतुष्टयमय
तुम शासन सेय अमेय जीव । शिव गये जाहिं जैहैं सदीव ॥ भवसागरमें दुख क्षारवारि तारनको और न आप टारि ॥ ७ ॥ यह लख निजदुख-गद हरणकाज । तुम ही निमित्तकारण इलाज ॥ जाने, तातैं मैं शरण आय । उचरों निजदुख जो चिर लहाय ॥ ८ ॥ मैं भ्रम्यों अपनपो विसर आप अपनाये विधिफल पुण्यपाप ॥ निजको परको करता पिछान । परमें अनिष्टता इष्ट ठान ॥ ९ ॥
आकुलित भयो अज्ञान धार। ज्यों मृग मृगतृष्णा जान वार ॥ तनपरणतिमें आपौ चितार । कबहूं न अनुभयो स्वपद सार ॥ १० ॥ तुमको विन जाने जो कलेश । पाये सो तुम जानत जिनेश ॥ पशुनारकनरसुरगतिमझार । भव धर धर मर्यो अनंतवार ॥ ११ ॥
दौलत भजन सौरभ