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(१०३) अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायौ, ज्यौं शुक नभचाल विसरि नलिनी लटकायो । अपनी॥ चेतन अविरुद्ध शुद्ध, दरशबोधमय विशुद्ध। तजि जड़-रस-फरस रूप, पुद्गल अपनायौ॥१॥ अपनी.। इन्द्रियसुख दुखमें नित्त, पाग रागरुखमें चित्त। दायकभवविपतिवृन्द, बन्धको बढ़ायौ ॥२॥अपनी.॥ चाहदाह दाहै, त्यागौ न ताह चाहै। समतासुधा न गाहै जिन, निकट जा बतायौ॥३॥अपनी.॥ मानुषभव सुकुल पाय, जिनवरशासन लहाय। 'दौल' निजस्वभाव भज, अनादि जो न ध्यायौ ॥४॥अपनी.॥
हे प्राणी ! तू अपने आपको भूलकर, अपनी सुधि भूलकर आप (स्वयं) ही दुःख को उत्पन्न करता है, दु:ख का कारण बनता है। जैसे आकाश में स्वच्छंद उड़ान भरनेवाला तोता रस्सीबँधी लकड़ी में उलझकर उल्टा लटक जाता है और अपने उड़ान भरने के स्वभाव को भूलकर स्वयं उल्टा लटका हुआ रस्सी-लकड़ी को पकड़कर समझता है कि रस्सी ने उसे पकड़ रखा है। ___ यह चेतन अविरुद्ध है, इसका किसी से विरोध नहीं, यह किसी से विरुद्ध नहीं, पूर्ण शुद्ध है, सम्यकदर्शन व ज्ञान को धारण करनेवाला है। फिर भी यह अपना स्वभाव भूलकर, जड़प होकर स्पर्श- रस रूपमय पुद्गल को ही अपना मान रहा है।
यह जीव इंद्रिय सुख-दुःख, जो संसार में दुःख को उपजानेवाले हैं, उनको ही सब-कुछ समझकर, राग-द्वेष में रत होकर, डूबकर अपनी कर्मशृंखला को बढ़ा रहा है ; निरंतन कर्म-बंध कर रहा है। १५४
दौलत भजन सौरभ