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है और अपने ज्ञान की हानि होती है जबकि उनसे (राग-द्वेषमय पर-परिणति से) मुक्त होने पर समता-समभाव होता है अर्थात् मुक्ति मिलती है।
बिना अपने आत्मा की ओर गति किये, बिना आनंद-सागर में प्रवेश किये विषयों की चाहरूपी आग की तपन मिटती नहीं। अब श्री जिनेन्द्रदेव का उपदेश कानों से सुनकर ऐसी क्रिया करूँ कि जिससे विभाव मिट जावे।
ऐसा दुर्लभ अवसर बड़ी कठिनाई से जो मिला है, उसमें अपने ही हित के लिए यदि विलम्ब किया गया तो हे सयाने ! तुझे पछताना पड़ेगा। दौलतरामजी कहते हैं कि हे चेतन ! अब तुम भव- भय से छुटकारा पालो। अर्थात् भव-बंधन से मुक्त होवो।
भैंसें - भय से।
दौलत भजन सौरभ