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(१०१) मोही जीव भरमतमते नहिं, वस्तुस्वरूप लखे है जैसैं ॥टेक॥ जे जे जड़ चेतन की परनति, ते अनिवार परनवै वैसे। वृथा दुखी शठ कर विकलप यौँ, नहिं परिन4 परिन, ऐसँ॥१॥ अशुचि सरोग समल जड़मूरत, लखत विलात गगनघन जैसैं । सो तन ताहि निहार अपनपो, चहत अबाध रहै थिर कैसैं ॥२॥ सुत-पित-बंधु-वियोगयोग यौं, ज्यौं सराय जन निकसै पैसैं । विलखत हरखत शठ अपने लखि, रोवत हँसत मत्तजन जैसैं ।। ३ ।। जिन-रवि-वैन किरन लहि जिन निज, रूप सुभिन्न किया परमैसे। सो जगमौल 'दौल' को चिर-थित, मोहविलास निकास हदैसैं॥४॥
मोही जीव, मोहग्रस्त जीव भ्रमरूपी अंधकार के कारण वस्तु-स्वरूप जैसा है उसे वैसा नहीं देखकर अन्यथा देखता है, अंशरूप देखता है।
पुद्गल का व जीव का परिणमन एक निश्चित रूप में होता है, उनके परिणमन के सम्बन्ध में, उनके संबंध में यह अल्पज्ञानी विकल्प करता रहता है कि इनका परिणमन इस प्रकार न होकर अन्य प्रकार से हो जाये। ___ यह देह अशुचि अपवित्र है, रोगसहित है, मलसहित है, मूर्त-जड़रूप है
और आकाश में बादलों के विलीन होने के समान यह देह भी देखते-देखते विलीन हो जाती है, ओझल हो जाती है। तू इस देह से अपनापन जोड़ता है, देखता है और चाहता है कि यह सब बाधारहित होकर जैसा है वैसा का वैसा ही स्थिर रहे, यह कैसे संभव है ? ___ जैसे सराय में यात्री आते हैं और जाते हैं, वैसे ही पुत्र, स्त्री और भाई बंधुओं से भी संयोग और वियोग होता रहता है अर्थात् परिवार में कोई नया सम्बन्धी आता है तो कोई पुराना सम्बन्धी बिछुड़ जाता है, मर जाता है। जिसको देखकर
दौलत भजन सौरभ