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का पान नहीं करता और इन्द्रियजन्य विषय-विष का पान करते हुए तृप्त नहीं होता है, अर्थात् अघाता नहीं है, थकता नहीं है।
जो दुःखस्वरूप है, साक्षात् दुःख है और दुःखों को देनेवाले घने बादलों के समान है; जो अस्थिर हैं - टिकते नहीं हैं, प्रत्येक क्षण में विलीन होते रहते हैं, होते हैं और मिटते जाते हैं उन दुःखों के जगत को नहीं छोड़ता, पापी उस ही जी चाह करता है, सो ही सब रहा है, उससे विमुख नहीं होता।
यह देह, घर-बार, धन आदि से प्रीति स्थापित करता है और दिन-रात पाप का संचय करता है; कुगतिरूप विपत्तियाँ और देहरूपी कारा से नहीं डरता अपितु उनके प्रति भी प्रमादी होकर निश्चिंत हो रहा है. बेफिक्र हो रहा है।
पर-पदार्थ कभी भी अपना नहीं होता। सभी द्रव्य अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से परिणमते हैं। परन्तु यह उन्हें अपने भावरूप परिणमा कर दु:ख हो पाता है और शून्य आकाश में हाथ-पाँव मारने-चलाने के समान, नभ-ताड़न की निरर्थक क्रिया करता है।
यह नरभव-मोक्ष का द्वार है अर्थात् मोक्ष-गमन का साधन है क्योंकि मनुष्य भव/पर्याय से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, अन्य किसी भव से नहीं। यह भव, यह पर्याय बहुत मुश्किल से प्राप्त होती है। जैसे कोई बुद्धिहीन व्यक्ति कौवे को उड़ाने के लिए अपना रत्न/मणि फेंक देता है फिर अपनी दरिद्रता पर रोता है। उसी प्रकार इस नरभव को व्यर्थ के कामों में बिताना हाथ में आए सुअवसर को गँवाकर दुःख ही उपजाना है।
अपने चिदानंद को, अपने स्वरूप को जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित है, भूलकर, उसे छोड़कर अन्य कष्टों में, विपत्तियों में अपने को डालता है। सुगुरु जो उपदेश देते हैं उनको हृदय में ग्रहण नहीं करता और समता रखकर सुख को अनुभूति नहीं करता अर्थात् विकल होता रहता है।
हे भत्र्य ! श्री जिनेन्द्र के वचन सुनकर तू इस संसार के झंझटों से, द्वंद्व से छूट क्यों नहीं जाता ! न तू उनकी कथा को सुनता है और न उन गुणों का चिन्तवन करता है जिनसे आत्मा का बोध होता है।
दौलत भजन सौरभ