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________________ भोग देते हैं । ये (विषय-भोग) समतारूपी लता को काटनेवाली कुल्हाड़ी के समान घातक हैं। इनमें लिप्त होकर देव भी एकेन्द्रिय-स्थावर आदि पर्याय पाते हैं और नारायण भी नरक गति को प्राप्त होते हैं। जो इनसे विरक्त होते हैं वे अत्यधिक सुख के अधिकारी होते हैं, इन्द्रों द्वारा पूजनीय होते हैं। जो इनके पराधीन होते हैं वे सब क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं, पापों का बंध करते हैं । विषयों में, भोग में सुख माननेवाले उसी प्रकार हैं जैसे कोई आम के स्वाद को छोड़कर आक में ही सुख समझते हैं। आटे के लोभ में मछली, काम-वासना के कारण हाथी, दीपक पर लुब्ध होकर पतंग, सुगंध के कारण भौंरा, संगीत की ध्वनि से वशीभूत होकर मृग अत्यन्त दुःख पाते हैं। जैसे बाहर से अच्छा दिखाई देनेवाला किंपाक का फल (इन्द्रायण फल) भीतर से कडुआ होने के कारण (सेवन करने पर) अन्त में फल देने के समय अत्यंत मादायी होता है वैसे ही किया भी प्रारंभ में अच्छे लगते हैं, किन्तु फल देते समय अत्यन्त दुःखदायी होते हैं। इन्द्र, नरेन्द्र, खगपति (पक्षी-सूर्य चन्द्रादि) की आशा भी भोग से पूरी नहीं होती। दौलतराम कहते हैं कि अरे तुम वैराग्य को धारण करो जो मोक्ष- सुख को देनेवाला है। करी .. हाथी ; श्वभ्र - नरक विरचे = बैरागी हुए; मुरारी - नारायण; भंग = भौंरा; किंपाक - एक प्रकार का कडुआ फल । दौलत भजन सौरभ
SR No.090128
Book TitleDaulat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size3 MB
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