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________________ (९०) मत कीज्यों जी यारी, ये भोग भुजंग सम जानके॥टेक॥ भुजग डसत इकबार नसत है, ये अनंत मृतुकारी। तिसना तृषा बढे इन सेयें, ज्यौं पीये जल खारी ॥१॥मत.।। रोग वियोग शोक वनको धन, समता-लताकुठारी। केहरी करी अरी न देत ज्यौं, त्यौं ये र्दै दुखभारी॥२॥मत. ।। इनमें रचे देव तरु थाये, पाये श्वभ्र मुरारी। जे विरचे ते सुरपति अरचे, परचे सुख अधिकारी ।। ३। मत. ।। पराधीन छिनमाहिं छीन है, पापवंधकरतारी। इन्हें गिनैं सुख आकमाहिं तिन, आमतनी बुधि धारी ॥ ४॥मत.।। मीन मतंग पतंग भंग मृग, इन वश भये दुखारी। सेवत ज्यौं किंपाक ललित, परिपाक समय दुखकारी॥५॥मत.॥ सुरपति नरपति खगपतिहू की, भोग न आस निवारी। 'दौल' त्याग अब भज विराग सुख, ज्यौं पावै शिवनारी॥६॥मत.॥ इन भोगों को, विषयों को भुजंग अर्थात् सर्प के समान विषैला जानो और इनमें रुचि न लो। इनसे राग मत करो - प्रीति मत करो। सर्प द्वारा एक बार डसने से मृत्यु हो जाती हैं, परंतु ये भोग (कर्म श्रृंखला के बंधन से) बार बार, अनंत बार मृत्युकारक हैं - मृत्यु देनेवाले हैं । जिस प्रकार खारा जल पीने से प्यास नहीं बुझती बल्कि और अधिक तीव्र हो जाती है उसी प्रकार इन इन्द्रिय-विषयों को भोगने से तृप्ति/संतुष्टि नहीं होती बल्कि भोगों की चाह और अधिक बढ़ती जाती है। __ ये विषय-भोग, रोग शोक-वियोगरूपी वन को बढ़ानेवाले बादल के समान हैं । सिंह, हाथी और दुश्मन भी ऐसे दु:ख नहीं देते जितने भारी दुःख ये विषय दौलत भजन सौरभ १३३
SR No.090128
Book TitleDaulat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size3 MB
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