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(७०) जय श्रीवीर जिनेन्द्रचन्द्र, शतइन्द्रवंद्य जगतारं ॥ टेक॥ सिद्धारथकुल-कमल-अमल-रवि, भवभूधरपविभारं। गुनमनिकोष अदोष मोषपति, विपिन कषायतुषारं ॥१॥जय.॥ मदनकदन शिवसदन पद-नमित, नित अनमित यतिसारं। रमाअनंतकंत अंतक-कृत, -अंत जंतुहितकारं ॥२॥जय.॥ फंद चंदनाकंदन दादुरदुरित तुरित निरं। रूद्ररचित अतिरुद्र उपद्रव, -पवन अद्रिपति सारं॥३॥जय.॥ अंतातीत अचिंत्य पहाड़ सुगुन तुम, कहत लहत को पारं। हे जगमोल 'दौल' तेरे क्रम, नमै शीस कर धारं ॥४॥जय.॥
हे जिनेन्द्ररूपी चंद्र - भगवान महावीर आपकी जय हो। आप सौ इन्द्रों द्वारा पूजित हो। आप जगत का उद्धार करनेवाले हो।
राजा सिद्धार्थ के कुलरूपी कमल को विकसित करनेवाले विमल सूर्य हो। आप संसाररूपी पर्वत को ध्वंस करने हेतु वन के समान हैं; उसे खंडित करने हेतु गाज (बिजली) के समान हैं । हे मोक्षपत्ति ! आप दोषरहित हैं, गुणरूपी मणियों के भण्डार हैं और कषायरूपी वन को नष्ट करने हेतु पाले (सर्दी में खेतों में पड़नेवाली बर्फ) के समान हैं।
कामदेव को जीतनेवाले, मोक्ष-लक्ष्मी के घर हो। नित्य-प्रति यतिलोग साररूप में आपके चरणों की वंदना करते हैं, चरणों में शीश नमाते हैं। आप मोक्ष-लक्ष्मी के स्वामी हो। अंत में मृत्यु को जीतनेवाले अर्थात् जन्म-मरण से मुक्त हो। आप जगत का हित करनेवाले हो, कल्याणकारी हो।
चंदना सती के कष्टों का, मेंढ़क के पापों का, रुद्र द्वारा किए गए उपद्रव - पर्वतों को भी उड़ा कर ले जानेवाले भीषण पवन-वेग का अविलंब शमन, निवारण करनेवाले हो।
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दौलत भजन सौरभ