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(६८) बंदों अद्भुत चन्द्र वीर जिन, भविचकोरचितहारी ॥टेक॥ सिद्धारथनृपकुलमभमंडन, खंडनभ्रमतम भारी। परमानंदजलधिविस्तारन, पापतापछयकारी ॥ १ ॥वंदो.॥ उदित निरंतर त्रिभुवन अंतर, कीरति किरण प्रसारी। दोषमलंककलंक अटंकित, मोहराहु निरवारी॥२॥वंदों.॥ कर्मावरण पयोद अरोधित, बोधित शिवमगचारी। गणधरादि मुनि उडगन सेवत, नित पूनमतिधि धारी ।। ३ ।। वंदों.॥ अखिल अलोकाकाशउलंघन, जास ज्ञानउजयारी। 'दौलत' मनसाकुमुदनिमोदन, जयो चरम जगतारी॥ ४॥ वंदों.।।
मैं उन अद्भुत वीर जिनेन्द्र की वंदना करता हूँ, जो चन्द्रमा के समान चकोर अर्थात् भव्यजनों के चित्त को हरनेवाले हैं।
जो राजा सिद्धार्थ के कुलरूपी आकाश को सुशोभित करनेवाले व अज्ञानरूपी अंधकार का अत्यंत नाश करनेवाले हैं । वह परम आनंदरूपी समुद्र के समान विस्तृत हैं और पाप की तपन को नष्ट करनेवाले हैं। ___ जो तीन लोक में सदैव उदित हैं और जिनका यश किरणों की भाँति सर्वत्र फैल रहा है। जो पापरूपी मल-कलंक का बिना उकेरा हुआ ढेर हैं । आप उस मोहरूपी राहु का निवारण करनेवाले हैं।
जिनके कर्म-आवरणरूपी बादलों की बाधा दूर हो चुकी है, जिन्होंने मोक्षमार्ग पर बढ़नेवालों को निर्मल ज्ञानधारा का उपदेश दिया, जो पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान पूर्ण हैं, नित्य प्रकाशमान हैं, गणधर व मुनिरूपी तारे जिनको आराधना करते हैं उन अद्भुत वीर जिनेन्द्ररूपी चन्द्र की वन्दना करता हूँ।
दौलत भजन सौरभ