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नियुक्ति-संरचना और दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति
७७ . इस अध्ययन में बन्ध का द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव निक्षेप से वर्णन है। द्रव्य बन्ध दो प्रकार का होता है- प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध। प्रयोग बन्ध मूल और उत्तर दो प्रकार का होता है। मूलबन्ध के दो भेद होते हैं- शारीरिक और अशारीरिक। नूपुर या वेणी उत्तरबन्ध है। विस्रसाबन्ध सादिक और अनादिक दो प्रकार का है। निक्षेप की दृष्टि से भाव बन्ध जीव और अजीव दो प्रकार का होता है। ये दोनों भाव तीन-तीन प्रकार के होते हैं- विपाक से बन्ध, अविपाक से बन्ध और तदुभय बन्ध। क्षेत्र और काल का निक्षेप-दृष्टि से विचार करते हुए कहा गया है- जिस क्षेत्र में बन्ध हो वह क्षेत्र बन्ध और जिस काल में बन्ध हो वह काल बन्ध है। भावनिक्षेप से निदान में कषाय बन्ध अधिकार अनेक विधियों और अर्थों में होता है। भाव निदान इहलौकिक
और पारलौकिक दो प्रकार का होता है। प्रस्तुत अध्ययन में पारलौकिक बन्ध का कथन है। निदान-दोष के कारण श्रमण का भव-भ्रमण अवश्यम्भावीं बताया गया है। श्रमण जन्म-मरण से मुक्त कैसे होता है? और भव-भ्रमण क्यों करता है? इस परिप्रेक्ष्य में निर्दिष्ट है कि अदूषित मूल और उत्तरगुण वाला, सदा संसार में अनासक्त, भक्त (आहार), उपधि और शय्यासन में सदा शुद्धता और एकान्त का सेवन करने वाला तथा सदा अप्रमत्त मोक्षगामी होता है। तीथङ्कर, गुरु और साधु में भक्ति युक्त इन्द्रियजयी प्राय: सिद्ध होता है। तद्विपरीत, विषयाभिलाषी और असंयत को मोक्ष नहीं होता, निदान करने वाले निश्चित् रूप से इस संसार में आते हैं। निदान दोष के कारण संयम मार्ग पर प्रयत्नशील भी श्रमण निश्चित रूप से उत्पत्ति या जन्म पाता है या संसार प्राप्त करता है। अत: अनिदान श्रेयस्कर है।
सुविधा के लिए बन्ध और आयति को निम्न सारिणी द्वारा व्यक्त कर सकते हैं
बन्ध
द्रव्य
भाव
प्रयोग
प्रयाग
विस्रसा
उत्तर
सादिक
अनादिक
शारीरिक अशारीरिक
नूपुर आदि
जीव
अजीव
विपाक अविपाक तदुभय विपाक अविपाक तदुभय