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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन के अन्त में उपदेश दिया गया है कि ज्ञानार्थी, तपस्वी तथा असहनशील को, अनवरत बरसात होने पर भी, यतनापूर्वक गोचरी ग्रहण करनी चाहिए।
नवम 'मोहनीय' अध्ययन में मोह का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों में से द्रव्य और भाव निक्षेप द्वारा कथन करने का निर्देश है। द्रव्य निक्षेप से मोह सचित्त
और अचित्त दो प्रकार का है। सचित्त मोह धातु, गो, अनादि और अचित मोह गृह, धन आदि है। भाव मोह सङ्घात या सामान्य और विभाग रूप दो प्रकार का होता है। भाव मोह सङ्घात दृष्टि से एक प्रकृति और विभाग दृष्टि से अनेक प्रकृति होता है। इसे निम्न सारिणी द्वारा इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं
- मोह
नाम
स्थापना
द्रव्य
भाव
सचित्तादि
अचित्तादि
धातु, गो अनादि
गृह, धनादि
सात या सामान्य
विभाग
एक प्रकृति
अनेक प्रकृति कर्मप्रवाद में वर्णित अष्टविधकर्म ही संक्षेप में मोह कहा गया है। उसके अनेक एकार्थक हैं। तीर्थङ्करों के अनुसार साधु, गुरु, मित्र, बान्धव, श्रेष्ठि और सेनापति के वध में गुरुबन्ध या महाबन्ध है। साधु को गुरु की आशातना और जिनवचनों का विलोपन, हनन या व्याघात नहीं करना चाहिए।
दशम 'निदान' अध्ययन के आरम्भ में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों में से भाव-निक्षेप द्वारा आयति का कथन करने का निर्देश है। द्रव्य-निक्षेप से, जाति या उत्पत्ति, उत्पन्न द्रव्य का स्वभाव है जबकि भावनिक्षेप से यह उत्पत्ति रूप अनुभवन है। निदानकृत कर्मफल का भोग-ओघ या सामान्य और विभाग-दो प्रकार का बताया गया है। ओघ अनुभवन से अभिप्राय सांसारिक जीवों की उत्पत्ति और मरण है। विभाग अनुभवन औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक छ: भाव रूप है। इसी क्रम में उत्पत्ति के तीन भेद बताये गये हैं- जाति, आजाति और प्रत्याजाति। सांसारिकों की नरकादि गतियों में उत्पत्ति जाति है। संमूर्छ, अगर्भ, उपपात आदि अन्य प्रकार से जन्म आजाति है। जिस भव से जीव च्युत हुआ है, उसी भव में उसका पुनर्जन्म प्रत्याजाति है और यह केवल मनुष्य और तिर्यञ्च की है।