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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद . १६९ काऊण मासकप्पं, तत्थेव उवागयाण ऊणा ते। चिक्खल वास रोहेण वा वि तेण ट्ठिया ऊणा ॥५९॥ वासाखेत्तालंभे, अद्धाणादीसु पत्तमहिगा तो। साहगवाघाएण व अपडिक्कमिउं जइ वयंति ॥६०॥ पडिमापडिवन्नाणं एगाहं पंच होतऽहालंदे । जिणसुद्धाणं मासो निक्कारणओ य थेराणं ॥६१॥ ऊणाइरित्त मासा एवं थेराण अट्ठ णायव्वा । इयरे अट्ठ विहरिउं णियमा चत्तारि अच्छन्ति ॥१२॥ कृत्वा मासकल्पं तत्रैवोपागतानामूना ते । कर्दमवर्षारोधेन वापि तेन स्थिता न्यूनाः ॥१९॥ वर्षाक्षेत्रालब्धे अध्वादिषु प्राप्तमधिकाः तु । साधकव्याघातेन इव, अप्रतिक्रमितुं यदि वदन्ति ॥३०॥ प्रतिमाप्रतिपन्नानां एकाहः पञ्चहानि यथालन्दिनः । जिनशुद्धानां मासः निष्कारणतः च स्थविराणाम् ॥११॥ ऊनातिरिक्तमासा एवं स्थविराणामष्ट ज्ञातव्याः । इतरे अष्ट विहर्तुं नियमेन चत्वारि आसते ॥१२॥ एक मास (आषाढ मास) का कल्प वास कर (वर्षावास योग्य स्थान न मिलने पर) उसी स्थान पर वर्षावास करना यह (आठ मास से) कम विहार है। कीचड़, बरसात अथवा नगरादि के घेरे के कारण भी वहीं वास करने से (आठ माह से) कम विहार है।।५९।।
चातुर्मास क्षेत्र प्राप्त न होने पर, मार्ग आदि में ही अधिक दिन प्राप्त (व्यतीत) होने पर एवं सिद्धि में बाधक (नक्षत्र) होने से यदि प्रतिक्रमण न करने का निर्देश हो तो आठ माह से अधिक विहार होता है।।६०।।
प्रतिमाधारी मुनि एक अहोरात्रि, यथालन्दिक मुनि पाँच अहोरात्रि, जिनकल्पी और स्थविरकल्पी साधु एक मास तक निष्कारण (सामान्य स्थिति में) एक क्षेत्र में रहें अर्थात् कारणवश उक्त अवधि घट-बढ़ सकती है।।६१।।
उक्तरीति से स्थविरकल्पिकयों का आठ माह से कम और अधिक विहार जानना चाहिए। इन (स्थविरकल्पियों) से भिन्न (प्रतिमाप्रतिपन्न, यथालन्दिक आठ महीने विहार कर नियमपूर्वक चार महीने वर्षावास करते हैं।।६२।।