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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त
१४७ एवं कसायदोसे णाउं पज्जोसवणासु अप्पणो परस्स वा सव्वकसायाण उवसमणं कायव्वं।
- नि०भा०चू०। कथा-सारांश
बहुश्रुत आगमों के अध्येता, बहुशिष्य परिवार वाले, उद्यत बिहारी आचार्य आर्यमङ्ग विहार करते हुए मथुरा नगरी गये। वस्त्रादि से श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा की गई। क्षीर, दधि, घृत, गुड़ आदि द्वारा उन्हें प्रतिदिन यथेच्छ प्रतिलाभना प्राप्त होती थी। साता सुख से प्रतिबद्ध हो विहार नहीं करने से उनकी निन्दा होने लगी। शेष साधु विहार किये। मङ्गु आलोचना और प्रतिक्रमण न कर श्रामण्य की विराधना करते हुए मरकर अधर्मी व्यन्तर यक्ष के रूप में उत्पन्न हुए। उस क्षेत्र से जब साधु निकलते और प्रवेश करते थे तब वह यक्ष, यक्षप्रतिमा में प्रवेशकर दीर्घ आकार वाली जिह्वा निकालता। श्रमणों द्वारा पूछने पर कहता- मैं साता सुख से प्रतिबद्ध जिह्वा-दोष के कारण अल्प ऋद्धि वाला होकर इस नगर में व्यन्तर उत्पन्न हुआ हूँ। तुम्हें प्रतिबोधित करने के लिए यहाँ आया हूँ। मेरे जैसा मत करना। कुछ लोग इस कथा को इसप्रकार भी कहते हैंजब श्रमण आहार लेते थे तब वह समस्त अलङ्कारों से विभूषित हो दीर्घ आकार वाला हाथ गवाक्ष द्वार से साधुओं के आगे फैलाता।
साधुओं द्वारा पूछने पर कहता- यह मैं आर्यमङ्गु ऋद्धि और जिह्वा-लोभ से अत्यधिक प्रमाद वाला होकर मरणोपरान्त लोभ-दोष से अधर्मी यक्ष हुआ हूँ। इसलिए तुम लोग इसप्रकार लोभ मत करना।
सन्दर्भ
१. समराइच्चकहा, पूवार्द्ध (प्राकृत) आचार्य हरिभद्र, हि०अनु० डॉ०रमेशचन्द्र
जैन, ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला, प्रा०प० २, भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन, दिल्ली १९९३, पृ. ४। २. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति (मूल), सं० विजयामृतसूरि, 'नियुक्तिसंग्रह' हर्षपुष्पामृत
जैन ग्रन्थमाला १८९, लाखाबावल १९८९, गाथा ९०-११०, पृ० ४८५-८६। निशीथभाष्य चूर्णि, भाग ३, सं० आचार्य अमरमुनि, भारतीय विद्या प्रकाशन,
दिल्ली एवं सन्मति ज्ञानपीठ, वीरायतन, राजगृह (ग्र०स०५), पृ०१३९-१५५। ४. दशाश्रुतस्कन्धमूलनियुक्तिचूर्णिः - मणिविजयगणि ग्रन्थमाला सं०१४,
भावनगर १९५४, पृ०६०-६२।