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छहढ़ाला उत्तर-"ज्ञान समान न आन जगत में सुख की कारण'
समस्त सुखों का मूल कारण सम्यग्ज्ञान है ।
__ ज्ञानी व अज्ञानी के कर्मनाश में अन्तर कोटि जन्म तप तपै ज्ञान, बिन कर्म झरे जे । ज्ञानी के छिनमाहिं, त्रिगुप्ति में सहज टरै ते ।। मुनिव्रत धार अनन्त बार, प्रीवक उपजायो । यै निज आनालान बिना सानु ले न पायो ।।४!!
शब्दार्थ—कोटि = करोड़ । तपै = तप करने से । ज्ञान बिन = बिना ज्ञान के । झरै = नष्ट होते हैं । छिन में = क्षणभर में । त्रिगुप्ति = मन, वचन, काय का निरोध । सहज = बिना प्रयल के । टरै = दुर होते हैं । मुनिव्रत = महाव्रत । ग्रीवक = सोलह स्वर्ग से ऊपर, ऊपर के विमान | उपजायो = उत्पन्न हुआ | आतमज्ञान = स्वानुभव । लेश = थोड़ा भी ।
अर्थ-अज्ञानी जीव के सम्याज्ञान के बिना करोड़ों भवों तक तपश्चरण करने पर जितने कर्म नष्ट होते हैं, उतने कर्म ज्ञानी जीव के मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकने से क्षणभर में सरलता से नष्ट हो जाते हैं । यह जीव मुनियों के व्रत धारण कर अनेक बार नवमें अवेयक तक उत्पन्न हुआ परन्तु अपनी आत्मा का ज्ञान न होने से लेशमात्र भी सुख प्राप्त नहीं कर सका।
प्रश्न १–गुप्ति किसे कहते हैं ? उत्तर--मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है । प्रश्न २–ज्ञानी और अज्ञानी में क्या अन्तर है ?
उत्तर-अज्ञानी तप करने से जितने कर्मों की निर्जरा करोड़ वर्षों में करता है, ज्ञानी मन, वचन, काय को वश में करता हुआ उतने ही कर्मों की निर्जरा एक समय मात्र में कर देता है ।
प्रश्न ३–मुनि व्रतों को अनन्त बार धारण कर नौ ग्रेवेयक तक कौनसा जीव जाता है ?
उत्तर --अभव्य जीव ही द्रव्यलिंगी (दिगम्बर भेष) मुनि बनकर