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अपनी बात
'धम्मो वत्थु सहावो'-धर्म वस्तु का स्वभाव है और दिगम्बरत्व मनुष्य का निज रूप है, उसका प्रकृत स्वभाव है । इस दृष्टि से मनुष्य के लिए दिगम्बरत्व परमोपादेय धर्म है । धर्म और दिगम्बरत्व में कुछ भेद नहीं रहता।
जीवात्मा अपने धर्म को गँवाये हुए है । लौकिक दृष्टि से देखिए, चाहे आध्यात्मिक से, जीवात्मा भव-भ्रमण के चक्कर में पड़कर अपने निज स्वभाव से हाथ धोये बैठा है । लोक में वह नंगा आया है फिर भी वह समाज-मर्यादा के कृत्रिम भय के कारण वह अपने निज रूप को नहीं जान याता है।
संसार की माया-ममता में पड़कर आत्मानुभव से वंचित रहा है । इसका मुख्य कारण राग-द्वेषजनित परिणति है । राग-द्वेष और मोह के कारण यह जीव नरक, तिर्यंच, देव एवं मनुष्य आदि चारों गतियों में ८४ लाख योनियों में भ्रमण कर नाना प्रकार के कष्टों को पा रहा है ।।
जीवात्मा को आत्मा स्वातन्त्र्यता प्राप्त करने के लिये पर सम्बन्ध को बिल्कुल छोड़ना होगा । भारतीय संस्कृति में त्याग, इन्द्रिय-विजय, अनुशासन
और प्रेम की अविरल धारा बह रही है । भोग से सुख नहीं मिला, तब त्याग आया । भारतीय संस्कृति के अणु-अणु में त्याग की गूंज अनुजीवित है | जो व्यक्ति इसे विस्मृत कर देता है वह मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करता है । वही जीव संसार में भ्रमण करता रहता है ।
हम सब अज्ञानता के कारण संसार में भ्रमण कर रहे हैं । उससे छूटने का उपाय छहढाला में पं० दौलतरामजी ने आचार्यों के शब्दों को बड़ी ही सरलता एवं सरस रूप में प्रस्तुत किया है ।
आ० स्याद्वादमती