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छहढाला
सम्यग्दर्शन- ज्ञान चरण शिव, मग सो दुविध विचारो । जो सत्यारथ-रूप- सो निश्चय, कारण सो व्यवहारी || १॥
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परद्रव्यनतै भिन्न आप में रुचि सम्यक्त्व भला है । आप रूप को जानपनो सो, सम्यग्ज्ञान कला है ।। आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई । अब व्यवहार मोक्ष-भग सुनिये, हेतु नियत को होई || २ || जीव अजीव तत्त्व अरु आस्त्रव, बंधरु संवर जानो निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानो ।। है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो । तिनको सुन सामान्य विशेष दिढ़ प्रतीत उर आनो || ३ || बहिरातम अन्तर आतम, परमातम जीव त्रिधा है । देह जीव को एक गिनै, बहिरातम तत्त्व मुधा है ।। उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर आतम ज्ञानी । द्विविध संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी || ४ | मध्यम अन्तर आतम है जे, देशव्रती अनगारी । जघन कहे अविरतसमदृष्टि, तीनों शिवमगचारी ।। सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें याति निवारी । श्री अरहन्त सकल परमातम, लोकालोक निहारी ॥५॥ ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल, वर्जित सिद्ध महंता । ते हैं निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता ।। बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हुजै । परमातम को ध्यान निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै || ६ | चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं । पुद्गल, पंच वरन रस गंध-दु, फरस वसु जाके हैं ।। जिय पुद्गल को चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिन मूर्ति निरूपी ।।७।।