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छहढ़ाला
१०७ शुभ अशुभ बंध के फल मैंझार, रति अरति करै निज पद विसार। आतम हित हेतु विराग ज्ञान, ते लखें आपको कष्टदान ।।६। रोके न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुखदायक अज्ञान जान ।।७।। इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्त । यो मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ।।८।। जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोर्षे चिर दर्शनमोह एव । अंतर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अंबर ते सनेह ।।९।। धारै कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरु जन्म जल उपल नाव । जे रागद्वेष मल करि मलीन, वनिता गदादि जुत चिह्न चीन ।।१०।। ते हैं टुदेव तिनको जुत्र, शासनतिन गव ानमा छेव । रागादि भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत ।।१।। जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरथें जीव लहै अशर्म । याकूँ गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान ।।१२।। एकान्तवाद- दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त । कपिलादिरचित श्रुत को अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास ।।१३।। जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविधविध देह दाह । आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन ।।१४।। ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पंथ लाग । जगजाल भ्रमण को देहु त्याग, अब 'दौलत' निज आतम सुपाग ।।१५।।
तीसरी ढाल
__ नरेन्द्र छन्द आतम को हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमाहिं न तातें, शिव-मग लाग्यो चहिये ।।