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छहढ़ाला
प्रश्न १–जो भाग्यवान रत्नत्रय धारण करता है उसकी दशा बताओं ?
उत्तर-"ते शिव लहें तिन सुजश जल जगमल ह." जो भाम्बवान निश्चय व्यवहार रूप रत्नत्रय को धारण करते हैं वे मुक्ति को प्राप्त करते हैं तथा उनका कीर्तिरूपी जल संसार के मल का क्षय करता है ।
प्रश्न २-संसार में स्वहित कब तक कर लेना चाहिये ? उत्तर-"जबलों न रोग जरा गहै, तबलों झटिति निज हित करो।" .
अन्तिम उपदेश यह राग आग दहै सदा, तातें समामृत सेइये । चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये ।। कहा रच्यों पर पद में न तेरो, पद यहै क्यों दुःख सहै । अब 'दौल' होउ सुखी स्वपद रचि, दाव मत चूको यहै ।।१५।।
शब्दार्थ-राग आग = रागरूपी अग्नि । दहै = जलती है । समामृत = समतारूपी अमृत । सेइये = सेवन करना चाहिये । चिर = लम्बे समय । भजे = सेवन किया है । निजपद = आत्मस्वरूप । बेइये = पहचानना चाहिये । पर पद = परवस्तु । कहा = क्यों । रच्यो = लीन है । रचि = लगाकर | दाव = अवसर, मौका । ____ अर्थ-यह रागरूपी आग हमेशा जलती रहती है, इसलिये समतारूपी अमृत का सेवन करना चाहिये । विषय-कषायों का अनादिकाल से सेवन किया है अब उनको छोड़कर अपने स्वरूप को पहचानना चाहिये । दूसरी वस्तुओं में लीन क्यों होता हैं ? यह तेरा पद नहीं है । दुःख क्यों सहता है ? हे दौलतराम ! अपने स्वरूप में लीन होकर सुखी बनो, यह मौका हाथ से मत जाने दो ।
प्रश्न १–रागरूपी आग को किससे शांत करना चाहिये ?
उत्तर—“समामृत सेइये" समतारूपी अमृत का सेवन करने से रागरूपी आग शान्त हो जाती हैं ।
प्रश्न २–इस जीव ने अनादिकाल से क्या किया ?
उत्तर—“चिर भजे विषय काषाय'' इस जीवन ने अनादिकाल से विषय कषायों का सेवन किया ।