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चतुर्विशति स्तोत्र निजात्मवीर्य के साहचर्य से अपनी निजात्म की अनन्त स्वभाव शक्तियों की माला को आपने स्पष्ट प्रत्यक्ष अवलोकन किया । उसी अपने प्रकट आत्म प्रकाश के माध्यम से तीनों लोकों की अनन्त धर्मात्मक अर्थात् अनन्त द्रव्य, गुण, पर्यायों से युक्त पदार्थ मालिका को भी प्रत्यक्ष किया इसी से आपका अनेकान्त सिद्धान्त अकाट्य, अबाध और अविरोधी सिद्ध होता है | आपका अनन्तज्ञान, अनन्तशक्ति रूप सचिव के साचिव्य से प्रवृत्त होता है । अनन्त सुख शील, दर्शन का अधिपति आत्मा स्वयं के द्वारा स्वयं में स्वयं शिवराज्य का अधिपति हुआ । अनन्तवीर्य को अपना मन्त्री नियुक्त कर तीनों लोकों का ज्ञाता हो गया । हे जिन ! आपकी महिमा अपार है । ॥ १५ ॥
सम्पूर्ण पदार्थों के द्वारा विस्तृत त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों के समूह को व्याप्त कर उनके साथ स्वंय को भी निश्चय से एक केवलज्ञान द्वारा आपने ज्ञात कर लिया | आप स्वयं अनन्तता को प्राप्त हुए । अर्थात् अनन्तकाल पर्यन्त अपन अनन्त गुण पर्यायों को विशुद्धता को धारण कर अजर-अमर अवस्था में स्थित हुए || १६ ॥
___ संसार के समस्त पदार्थ समूहों में आपका ज्ञान व्याप्त हो हुआ, होगा (होता रहेगा) और हो रहा है । एक ही समय में एक साथ सर्व को आत्मसात कर लेता है | अर्थात् अशेष वस्तु तत्त्व आपके क्षायिक, निर्मल, समुज्ज्वल पूर्ण ज्ञान की स्वच्छता में दर्पणतल समान प्रतिभासित हुए, ज्ञान अविनश्वर होने से होते रहेंगे और वर्तमान में तो चमक ही रहे हैं । आप में मानों उदीयमान ज्योति समाहित हो गई है । हे देव! अशेष ज्योतिपुञ्ज स्वयं आ आप में ही समाहित हो गया है || १७ ॥
हे देव! संसार के समस्त चराचर (जड़-जंगम) पदार्थों की तृष्णा से निवृत्त हो आपका स्थायी आत्म विक्रम (पराक्रम) स्व-स्वरूप में ही व्यापृत हो गया है । यही कारण है कि पर पदार्थों से पराङ्मुख होकर आपके चिदंश
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