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चतुर्विंशति स्तोत्र
साम्यरससुधा के आनन्द रस से भरकर मनोद्भव कलिका विकसित की । उस निजानन्द रस सागर में निमग्न होकर केवलज्ञान रूपी अग्निज्वाला को प्रज्वलित किया । वह केवल ज्ञान शिखा के सुप्रकाश में तीनों लोक समाहित हो जाते हैं अर्थात् ढलकने लगते हैं । अभिप्राय यह है कि केवलज्ञान I रूपी दीपक की अखण्ड ज्योति त्रैलोक्य को एक साथ उदरस्थकर लेती है । अर्थात् स्पष्ट प्रकाशित करती है । इस प्रभापुञ्ज अमर ज्योति में तीनों लोक द्योतित होते हैं ।। ११ ।।
हे जिनेन्द्र ! आप सम्पूर्ण कर्तृत्व भाव से पूर्णतः विरक्त हुए । संसार की अशेष स्थितियों के ज्ञाता हो गये । वीतराग भाव परिणत होने से कर्तृत्व बुद्धि का अभाव और मात्र ज्ञातृत्व बुद्धि का प्रकाशन हुआ । एक मात्र चैतन्य धातु (आत्मतत्त्व ) के विकास का ही एक मात्र प्रयास किया । अतः तदनुसार आप स्वयं विज्ञान घन स्वरूप हुए । ज्ञान शरीरी त्रिविध कर्म मल वर्जित हो गये | अब एक मात्र केवल ज्ञान रूप रवि ही सर्वात्मरूप से प्रकट हुआ || १२ ||
भी जिन ! सयोग केवली दशा में रहते हुए जब आयु कर्म क्षीण हो जाता है अर्थात् आयु के पूर्ण होने पर शेष अघातिया कर्म जो आत्मस्वरूप से वहिर्भूत हैं उनका भी अभाव किया । तदनन्तर समय में ही आपने अनन्त, विशुद्ध, अभूतपूर्व, अलौकिक, निश्चल, परम विशुद्ध परम ज्योति पुञ्जमयी, अनन्त सिद्धत्व अवस्था को प्राप्त किया ।। १३ ।।
अब आपका विशुद्ध आत्मतत्व एक मात्र चैतन्य रूप में समग्रता को प्राप्त हुआ | अनन्त वीर्यादि गुण प्रकट प्रकाशित हो गये | अब समग्र आत्म द्रव्य एक मात्र चिद् पर्याय रूप ही अनन्त काल तक रहेगी क्योंकि परिवर्तन के निमित्तों का पूर्ण अभाव हो गया । अब चैत न्य पुञ्ज द्रव्य यथा जात तथा रूप ही रहेगा | अपने द्रव्यत्वस्वभाव का परित्याग कर अन्य पर्याय रूप कभी भी परिणमन नहीं करेगा । शुद्ध चैतन्य अन्य पर्याय धारण नहीं करता ।। १४ ।।
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