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चतुर्विंशतिस्तोत्र
पाठ-5
हे जितेन्द्र ! आपके दर्पण समान निर्मल स्वच्छ ज्ञान में लोकालोक प्रति भासित हो रहा है । सदैव उदीयमान अनन्त चतुष्ट्यरूप आत्मवैभव का तेज - प्रकाशित हो रहा है । आप अपने ही निजानन्दरूप आत्मस्वभाव महिमा से दैदीप्यमान हैं । अत्यन्त विशुद्ध- द्रव्य भाव, नोकर्म रहित चैतन्यभाव से भरित ज्ञाता - दृष्टामय शोभायमान हैं | अतः हे चिदू चैतन्य स्वभावी परम वीतरागप्रभो आपको नमस्कार है | स्वयं चिदानन्द चैतन्य स्वभाव प्राप्ति के अभिलाषी आचार्य परमेष्ठी मुनिकुञ्जर, समाधिसम्राट श्री १०८ आदि सागर जी अंकलीकर के पट्टाचार्य चारित्र चक्रवर्ती १८ भाषाभाषी तत्त्वज्ञ विशारद श्री १०८ आ. महावीरकीर्ति जी ने इस श्लोक में मंगलाचरण रूप में ज्ञानशरीरी परमात्मा को नमस्कार किया है ॥ १ ॥
हे भगवन् ! आपने अनादि संसार धाम को नष्ट किया और अभूतपूर्व नवीन मुक्तिधाम को वहन कर रहे हैं। आपमें यही वर्तमान शान्त छवि में आनन्द प्रवाह दृष्टिगत हो रहा है । ऐसा प्रतीत हो रहा है | मानों चैतन्य चमत्कार रूप अंगहार द्वारा आपके मुखाराविन्द से महा तृप्तिकारक रस ही प्रकट हो रहा है । यही नहीं इस प्रस्फुरित आनन्द रस सीकरों से अभिविक्त हो मानो मैं भी स्वयं तद्रूप हो आनन्द नृत्य कर रहा हूँ । दर्शक जिस भाव से प्रभु छवि को निहारता है वह अनन्यभक्ति द्वारा स्वयं को भी तन्मय अनुभव करता है । यही भाव इस श्लोक में झलकता है || २ ||
यह स्वात्मोपलब्धि रूप विशाल तेज का उदय होना अत्यन्त दुर्लभ है । अति कठिन है । परन्तु परम तत्त्वज्ञों के द्वारा पररूप नश्वर संसार वैभव का वैराग्यभावना से उत्तरोत्तर निरन्तर परित्याग किया गया । फलतः
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