________________
ऋतुर्विंशति स्तोत्र
मेरी भावना
'स्तवनात् कीर्तिस्तपोनिधिसु' आचार्य समंतभद्र स्वामी ने बताया है कि तपोनिधियो निर्ग्रथों का गुणानुवाद करने से यश-कीर्ति जल में तैल बिंदु की तरह फैलती है । विशेष रूप से कर्मों कीनिर्जरा भी होती है वास्तव में तो प्रयोजनभूत कर्मनिर्जरा है ।
यह चतुर्विंशति स्तवन परम पूज्य प्रातः स्मरणीय विश्ववंद्य मुनिकुंजर समधिसम्राट चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शिरोमणी श्री आदिसागर जी महाराज अंकलीकर के पट्टाधीश आचार्य परमेष्ठी श्री महावीरकीर्ती जी महाराज अपने समय के उच्च कोटि के ज्ञानी थे । उनकी यह कृति भी यथा नाम तथा गुण वाली है | इस का प्रकाशित होना उतना ही आवश्यक था जितना निर्धन के लिए धन आवश्यक होता है । इस बात की प्रसन्नता है कि इस ग्रंथ को को पढ़कर भव्य जीवों को अवश्य ही मोक्ष पथ प्रशस्त होगा।
आर्यिकाशीतलमति