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________________ चतुर्विंशतिस्तोत्र | रहते हैं । अभिप्राय यह है कि निर्ग्रन्थसाधु को आत्मानुभूति प्रखर करने का ही लक्ष्य रखना चाहिए। वाह्य जगत से हटने का प्रयास करते रहना ही श्रामण्य के रक्षण का उपाय है || १५ ॥ जो एकान्त क्षणिक सिद्धान्ती वस्तु तत्त्व के सामान्य धर्म को भी क्षणिक ही प्रकट करते हैं, उनके शीघ्र ही वस्तु की तीक्ष्ण ज्योति के क्षय होने के साथ ही प्रभावशाली विशेष धर्म भी सामान्य वस्तु से अबद्ध ( रहित ) होने से आदर प्राप्त नहीं कर सकते । अर्थात् अपना अस्तित्व स्थापित नहीं कर सकते । इस प्रकार सामान्य व विशेष उभय धर्मों का अभाव ही सिद्ध होगा । इस प्रकार इन वस्तुधर्मों की एकाग्रता का त्यागकर वे तीव्र मोहान्धकार से आच्छन्न हो विपरीत खोटी शिक्षा के नशे में सुप्त हुए अन्तिम घर घरं कण्ठ में घोर तीव्र आवाज करने वाली सरल श्वासरूपी अनिल से नाडित हो अज्ञानभरे समाप्त हो जाते हैं । अर्थात् स्वयं भी सामान्य विशेषात्मक वस्तु लक्षण रहित हो मृतक समान निष्क्रिय पड़े रहते हैं ||१६|| अचल उपयोगरूप स्वावलम्बन से बद्ध हुयी पर्यायें प्रतिसमय तीक्ष्ण तेजस्वी होकर पुष्ट हो रहीं हैं वे ही प्रतिक्षण काल-समय का विभाजन करती हुयी विश्व को अहर्निश रूप से धारण करती हैं । अर्थात् उपयोग आत्म तत्त्व का सामान्य धर्म है और उसमें प्रतिसमय होने वाली हीनाधिकता पर्यायें हैं । ये दोनों स्वभाव एक ही तत्त्व में बद्ध होकर वस्तु तत्त्व का स्वरूप निर्धारण करते हैं । यह प्रत्यक्ष दृष्टिगत होता है । इस प्रकार जो उभय धर्मात्मक पदार्थ को स्वीकारते हैं वे ही भूतार्थ-समीचीन वस्तुतत्त्व विवेचक. विवेचनाकर उसमें श्रद्धा करते हैं वे ही सुस्थितसम्यग्दृष्टि हैं । इस प्रकार सर्वत्र सम्यग्दृष्टि सन्त एक साथ सामान्य विशेषयुक्त पदार्थ स्वरूप के विषय में स्थित होते हैं, अर्थात् स्वीकार करते हैं। वे ही सुस्पष्ट मति विशिष्ट स्व स्वरूप के स्पष्ट अध्येता होते हैं । पुनः सम्यग्ज्ञान से युक्त हो निजात्मज्ञ हो जाते हैं ||१७|| २२६
SR No.090121
Book TitleChaturvinshati Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirkirti
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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