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चतुर्विंशतिस्तोत्र
अपने हृदय में आत्म तत्त्व को स्तम्भित करने वाला योगी, वाह्य जगत
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में होने वाली गर्जना के साथ कर्मदा की गर्जन को करने में प्रतिभासित नहीं होने देता । इस प्रकार निष्कम्प आत्मा को अपने में स्तम्भित | करने वाले के उग्रतर क्षोभोत्पादक कर्मग्रहण नहीं होते । इस अवस्था को प्राप्त करने वाले के स्तम्भन क्रिया के नहीं करने पर भी सत्ता में स्थित कर्म पगु के समान अवस्था प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार के निष्पन्द मन के जो कुछ भी कारण प्राप्त होते हैं वे सर्व आपके ही स्वरूप को स्वयं प्रतिभासित करने वाले ही होते हैं । अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में आपका शुद्ध स्वरूप अकम्प होता है उसे स्वयं का ही निज रूप प्रतिभासित होने लगता ||१४||
निर्ग्रन्थ अवस्था प्रमत्तदशा (छठवें गुणस्थानप्राप्त ) में रहकर कुछ वीतराग अंशों से आत्मा के परमशान्त रस की छाया मात्र का स्पर्शन कर लेता है । उसी रसके द्वारा उन्मत्त हो प्रमाद रूप अभिप्रायों में मुग्ध हो जाय तो उसकी श्रमणता गज ( हस्ति) के समान पतित हो पुनः निश्चय ही निम्न गुणस्थान की दशा को प्राप्त करते हैं । जिस प्रकार हस्ति अपने नेत्रों को निम्नीलित ( बन्द ) कर गमन करता हुआ मार्ग भ्रष्ट हो गर्त में जा पड़ता है । किन्तु जो श्रमण राज जाग्रत हो, विवेक पूर्वक उस प्रकाश की छाया के माध्यम से कर्म समूह पर आक्रमण करते हैं वे अविपाक निर्जरा रूपी अग्नि से उन्हें भस्म कर देते हैं । उस कर्मरज में प्रच्छन्न स्वभाव की स्फूरायमान कर उस अद्भुत प्रकाश में सम्यक् चारित्र के साथ सम्यग्ज्ञान को एकाकार कर रमते हैं । जिनका ज्ञान या मति इस प्रकार विकासोन्मुख होती है, वे स्व स्वरूप विहारिणी बुद्धि बल से निरन्तर स्वानुभव लीन हो जाते हैं । अर्थात् स्व में स्व को स्थिर कर आत्मानन्दामृत में रमण करते
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