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चतुर्षिशति स्तोत्र इत्यादि रूप प्रकट होते हैं वे किस प्रकार होंगे । क्योंकि कुछ शेष ही नहीं रहा | अतः यह प्रत्यक्ष बाधित है ॥ २२ ।।
___ समस्त ये रूप यदि एकरूप ही हों तो विवेचना या मीमांसा करने से कुछ भी प्राप्ति नहीं है । इस अवस्था में तत्त्व निर्णायक की दशा तो मृगतृष्णा वत् निष्फल ही सिद्ध होगी । यथा पिपासा पीड़ित मृग-हिरण अपनी पिपासा की शान्ति हेतू बालूकणों को चमकते देख जलाशा से उसकी ओर दौड़ता जाता है, परन्तु कहीं भी जलबिन्दु प्राप्त नहीं होती, मरण ही शरण होती हैं । निश्चय ही मृग का श्रम व्यर्थ हो जाता है । इसी प्रकार सर्वशून्यता में तत्त्वान्वेषण का आश्रय लेने पर अकथ श्रम भी निष्फल ही सिद्ध होगा ।। २३ ॥
यदि दुराशा से इस सिद्धान्त को स्वीकार किया तो निश्चय ही सर्व जगत शून्य हो जायेगा । हे विभो इस अवस्था में संसार में कुछ भी अवशेष नहीं बचेगा । फिर तो बुद्धि-ज्ञान भी किसी भी मात्रा में स्थित नहीं रह सकेगा । इस प्रकार शून्यवाद के साथ ज्ञानाद्वैत भी शून्यरूप हो जायेगा । दोनों ही सिद्धान्त लोप होंगे ।। २४ ।।
नय के समस्त भेद अस्त रूप से प्राप्त होंगे । यह वही है, यह नहीं है इस प्रकार की स्पृहा किस प्रकार होगी । तब निर्णय की अन्तिम सीमा . कुछ नहीं बनेगी । सदैव अनिर्णय ही होगा । अतः आचार्य श्री इस विवादित शून्यवाद के भय से जिनदेव से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे प्रभो असीम विश्व का नाश करने वाले इस मिथ्या सिद्धान्त प्रमार्जित कर यथातथ्य तथ्य स्वरूप निर्धारित करिये | शून्यवाद में प्रविष्ट को सुरक्षित कीजिये । हे जिन ! मुझे कृतकृत्य कीजिये । अर्थात् मेरे श्रम को फलवत् बनाकर रक्षा कीजिये || २५ ॥
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