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चतुर्विंशति स्तोत्र
पाठ २० हे ईश ! ध्यानविशेष के सौष्ठव जन्य आपकी 'स्यात्' पद से अलंकृत स्वाखाद वाणी अद्भुत चमत्कारी है जो 'सर्वथा अभाव' रूप तत्त्व मानते हैं उनका खण्डन कर अभाव को भी सत् रूप स्वीकार करती है । अतत्व को भी तत्व सिद्ध करती है । वास्तव में विष वमन करने वाले मिथ्या यादियों को भी प्रतिपद-क्षण-क्षण अमृत प्रवाहित करती है । अतः सर्वकल्याण कारिणी है || १ ||
हे ईश आप ही सर्वथा शुद्ध चिन्मय वैभव के अधिष्ठाता हो । पूर्ण चैतन्य शक्ति प्रकट सर्वज्ञ हो । कारण आपका अचिन्य, अतीन्द्रिय, अचल ज्ञानधनरवि किरणें प्रथम, द्वितीय, आगे, पीछे आदि भेदरूप प्रवर्तन नहीं करतीं । अपितु एक ही समय में एक साथ सकल लोक और कालावर्ती पदार्थों को ग्रहण करती हैं | शुद्ध संग्रह नय दृष्टिगत होने से भासुर होती है । फलतः दिशा, कालादि विभाग कल्पना को अवकाश ही नहीं मिलता । अभिप्राय यह है कि सकल-पूर्णज्ञान काल क्रम दिशा-क्षेत्रादि क्रम से प्रवृत्ति नहीं करता, अपितु एक साथ एक समय में सर्वदर्शी हो सर्व को ज्ञात कर लेता है ।। २ ॥
हे ईश ! आपका सिद्धान्त संग्रहनय के साथ तत्व विवेचना करते हुए तत्त्व के स्वरूप को व्याप्ति रस द्वारा परम शुद्ध एक रूप स्थापित करता है | प्रभावोत्पादक होता हुआ स्वजातीय सर्व तत्त्वों को अपने में समाहित कर गर्जता है और भेदांशों को अस्सखलित-एकत्व की शिखा में अन्तर्निहित कर लेता है । फलतः तत्त्वांश को निरंशत्व में प्रविष्ट करा कठोरता से ऋजुसूत्र नय विवक्षा को मूर्च्छित कर देता है । अर्थात् गौण कर देता है || ३ ||
अपने अशेष अवयवों-तत्वांशों को भिन्न-भिन्न विभाजित किये गये भेदों को एकत्रित करने वाले संग्रह नय को प्रदेशमात्र ग्राही ऋजुसूत्र नय जीर्ण-शीर्ण कर देता है । हे प्रभो ! आपके सिद्धान्त की यही खूबी है कि
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